पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/८४

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३१० (प्रकाश ) महाराज ! क्यों नहीं, भापको कुरा से सब बनिज प्रभार अच्छी भाँति चलता है। चाणक्य-कहिये, साहजी ! पुराने राजाओं के गुण चंद्रगुम के दोषों को देखकर कमा लागों को स्मरण पाते हैं ? चंदन-कान पर हाथ रखकर ) राम! राम । शरद ऋतु के पूर्ण चंद्रमा की भाँति शाभित चंद्रगुप्त को देखकर कौन नहीं प्रसन्न होता? चाणक्य -जो प्रजा ऐसी प्रवन्न है, तो राजा भी प्रजा से कुछ अपना भला चाहते है। " चंदन-महाराज! जो आज्ञा । मुझसे कौन और कितनी वस्तु चाहन है ? चाणक्य -सुनिये, साहजी ! नंद का राज्य नहीं है, ३२० चंद्रगुप्त का राज्य है। धन से प्रसन्न होने वाला तो वह लालची नंद ही था चट्ठगुप्त तो तुम्हारे ही भले से प्रसन्न होता है । चंदन -(हर्प से ) महाराज ! यह तो आप की कृपा है। चाणक्य-पर यह तो मुझसे पूछिये कि वह भला किस प्रकार से होगा? चंदन-कृपा करके कहिये। चाणक्य-सौ बात की एक बात यह है कि राजा के विरुद्ध कामों को छोड़ा चंदन-महाराज! वह कौन अभागा है जिसे पार राजविरोधी समझते हैं। ३३० चाणक्य-उनमें पहले तो तुम हो । चंदन-( कानों पर हाथ रखकर ) राम ! राम ! भला तिनके से और अन से कैमा विरोध ? चाणक्य-विरोष यही है कि तुमने राजा के शत्रु राक्षस मंत्री का कुटुब तक घर में रख छोड़ा है। चंदन-महाराज यह किसी दुष्ट ने आप से झूठ कह दिया है ।