पृष्ठ:मुद्राराक्षस.djvu/९३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मुद्राराक्षस ना घटना है । ( शन छोड़कर आँखों में आँसू भरकर ) हा ! देव नही राक्षम को तुम्हारी कृपा कैसे भूलेगी? . . हैं जहँ अंड खड़े गजमेघ के अज्ञा करौ तह राक्षस जायकै । १८ त्यों ये तुरंग अनेकन हैं, तिनहूँ के प्रबंधहि राखी बनायकै ॥ पैदल ये सब तेरे भरोसे हैं काज करौ तिनको चित लायकै। यो कहि एक हमें तुम मानत हे निज काज हजार बनायकै ॥ विराधगुप्त-तव चार ओर से कुसुमनगर के बहुत दिनों त विरोधित रहने से नगर वामी बेचारे भीतर ही भीतर घिरे घि बड़ा गए। उनकी उदासी देखकर सुरंग के मार्ग से राजा सर्वार्थ पद्धि तपोवन में चला गया और स्वामी के विरह से आपके स ग शिथिल हो गए। जब चंद्रगुप्त की विजयघोषणा के विरोध रवासियों के भाव का अनुमान करके आप नंदराज के उद्धारा रंग से बाहर चले गए तब जिस विषकन्या को आपने चंद्रगुप्त १६ नाश के हेतु भेजा था ससे तपस्वी पर्वतेश्वर मारा गया । राक्षस-अहा मित्र ! देखो, कैसा पाश्चर्य हुआ ! जो विषमयी नृप-चंद्रबध-हित नारि राखी लायकै। तासों हत्यो पर्वत उलटि चाणक्य बुद्धि उपायकै ॥ जिमि करन-शक्ति अमोघ अरजुन हेतु धरी छिपायकै। पै कृष्ण के मत सो घटोत्कच पै परी धहरायकै ॥ विराधगुप्त-महागज ! 'समय की सत्र उलटी गति है। क जियेगा? राक्षस-हाँ तब क्या हुआ? " विराधगुप्त-तब पिता का वध सुनकर कुमार मलयतु नगर २०० निकलकर चले गये और पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक पर उन लोगों अपना विश्वास जमा लिया। तब उस दुष्ट चाणक्य ने चंद्रगुप्त का वेिश मुहूर्त प्रसिद्ध करके नगर के सब बढ़ई और लोहारों को बुलाकर एकत्र किया और उनसे कहा कि 'महाराज के नंदभवन में गृहप्रवेश का मुहू ज्योतिषियों ने आज ही आधी रात का लिया है, इससे बाहर से भीतर तक सब द्वारों को जाँच लो"। तब उससे