पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१३२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मेरी नामकहानी सन् १९.२ में भारतजीवन पत्र में काशिनरेश महाराज सर प्रभुनारायणसिंह के चरित्र पर कुछ आक्षेप छपे । उस पर बड़ा आंदो- लन मचा। टाउनहाल में एक बड़ी मभा में इम आप का विरोध किया गया। मन इस सभा में भाग लिया और शांति स्थापित करने का उद्योग पिया। मंग उद्योग सफल हुआ और बाबू रामकृष्ण वर्मा ने अपनी टिप्पणी पर संढ प्रकट करते हुए क्षमा मांगी। इसके दो-एक दिन पीछे वायू इंद्रनारायणसिंह ने मुझ युलवा भेजा और कहा कि काशिगज की नेटिव स्टेट्म के अधिकार देने की बात चल रही है। इधर भारतजीवन पत्र ने अपने लेस से उसमें व्यायात पहुंचाया है, पर वह मामला खत्तम हो गया। अब कोई ऐसा प्रायो- अन करना चाहिए जिसमे गवमेंट की यह दिखाया जा सके कि काशी के निवामियों में महाराज के प्रति श्रद्धा और भक्ति है। मैंने कहा कि मेरे हाथ में कुछ है नहीं। समा-भवन के लिये भूमि ले ली गई है। यदि महारान उसकी नींव रखना चाहे तो मै उसका प्रबध कर सकता है। उन्होंने कहा कि महाराज को पत्र लिखो, मैं स्वीकार करा लूंगा और ममा को अच्छी महायता दिलवाऊँगा। अस्तु, सव प्रवध किया गया और २१ दिसवर १९०२ को बड़ी धूम-धाम के साथ महा- सन ने नीव रखी। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि मैं समा की पूरी सहायता करूँगा। उस समय काशी में यह धात प्रसिद्ध हो गई थी कि महाराज समा का भवन अने पास से धनवा दे रहे हैं। पर महाराज से कुछ काल के अनंतर दो बेर करके २,०००) की सहायता प्राप्त हुई। जव समा-भवन बन गया और उसको २८ फर्वरी, सन्