पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१६२
मेरी आत्मकहानी
 

आदि के कारण बहुत-से नये शब्द भी प्रचलित हो गए थे जो पहले किसी प्रकार संगृहीत ही नहीं हो सकते थे। साथ ही कुछ शब्द ऐसे भी थे जो शब्द-सागर में छप तो गए थे, परंतु उनके कुछ कार्य पीछे से मालूम हुए थे। अत यह आवशयक समझा गया कि इन छूटे हुए या नव प्रचलित शब्दो और छूटे हुए अर्थों का अलग संग्रह करके परिशिष्ट रूप में दे दिया जाय । तदनुमार प्राय एक वर्ष के परिश्रम में ये शब्द और सर्व भी प्रस्तुत कर परिशिष्ट रूप में दे दिए गए हैं। आज-कल समाचार-पत्रो आदि या बोलचाल में जो बहुत-से राजनीतिक शब्द प्रचलित हो गए हैं.वे भी इसमे दे दिए गए हैं। सारांश यह कि इसके सपादको ने अपनी ओर से कोई बात इस कोश को सर्वागपूर्ण बनाने में उठा नहीं रखी है। इनमें जो दोष, अभाव चा त्रुटियाँ हैं उनका ज्ञान जितना इसके संपादको को है उतना क्दाचित् दूसरे को होना कठिन है, पर ये बाते अभाव-घानी से अथवा जान बूझकर नहीं होने पाई हैं। अनुभव भी मनुष्य को बहुत कुछ सिखाता है। इसके सपादकों ने भी इस कार्य को करके बहुत कुछ सीखा है और वे अपनी कृति के प्रभावों से पूर्णतया अभिऋ हैं।

यहाँ पर यह कहना क्दाचित् अनुचित न होगा कि भारतवर्ष। की किसी वर्तमान देश-भाषा में उसके एक बृहत् कोश के तैयार कराने का इतना बड़ा और व्यवस्थित आयोजन इस समय इस तक दूसरा अब तक नहीं हुआ था। जिस ढंग पर यह कोश प्रस्तुत करने का विचार किया गया था, उसके लिये बहुत अधिक परिश्रम तथा