पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७०
मेरी आत्मकहानी
 

जन्म-काल हो से है। जिस तरह एक बहुत छोटे से चीज से विशाल वटवृक्ष विकसित होता है, उसी तरह यह सभा भी बहुत छोटे आकार से विकसित होती हुई अपने वर्तमान आकार प्रकार को प्राप्त हुई है। इसका विशेष श्रेय इसके काशी-निवासी कुछ सभासदो और कार्यकर्ताओं को है। पहले इसकी तरफ बाहरी विद्वानों और हिंदी के हितचितकों का ध्यान कम था। परतु अब वह बात नहीं। अब तो उनमें से भी अनेक कृतविद्य सज्जन इसकी सहायता और उन्नति के कार्य में दत्तचित्र हैं।

"इस सभा को अनेक विघ्न बाधाओं-का सामना करना पड़ा है। इसके कार्यकलापो की कठोर आलोचनाएँ भी होती रही हैं और अब भी कभी-कभी हो जाती है। मुझे खेद है, पर सबे हदय से स्वीकार करना ही पड़ता है कि इन विरोधात्मक आलोचनाओं के कर्माओं में मुझ अबम की भी कई बार प्रतीति हो चुकी है। इसका प्रायश्चित्त भी मैं कर चुका हूँ। यह सब होते हुए भी सभा के कार्यकर्ता अपने उदिष्ट पथ से भ्रष्ट नहीं हुए। उनके इस मातृभाषा -प्रेम और ह्दयौदार्य की जितनी प्रशंसा की जाय कम है। उन्होंने सारी विघ्न बाधाओ का उल्लंबन करके सभा को उस उस स्थिति को पहुंचा दिया है जिसमे उसे जन-समुदाय इस समय देख रहा है।

"सभा ने देवनागरी लिपि और हिंदी-भाषा के साहित्य की उन्नति के लिये यथाशस्य अनेक काम किए हैं। उन सबमें उसका एक काम सबसे अधिक उल्लेख योग्य है। वह है हिंदी शब्द-सागर नामक विस्तृत कोश का निर्माण। यह कोश शब्द कल्पद्रुम, शब्द-स्तोम-