पृष्ठ:मेरी आत्मकहानी.djvu/१९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
मेरी आत्मकहानी
१८५
 

संपन्न हुआ और स्कूल चलने लगा। खत्री-पाठशाला के सब अध्यापको और कुछ नए अध्यापको की नियुक्ति हुई। पुराने अध्यापको मे एक बढ़ी त्रुटि थी कि वे समय पर न आते थे। इसमें मुझे बड़ी कठिनाइयाँ उठानी पड़ीं। पहले मैंने उन्हे समझाने का प्रयत्न किया, कुछ सफलता भी मिली, पर थोड़े दिनो के अनंतर फिर चहीं हाल हो गया। तब मैने एक उपाय निकाला। मास्टरो की हाजिरी का रजिस्टर दफ्तर में रहता था। मैने आज्ञा दी कि ठीक १० बजे यह मेरे कमरे में रख दिया जाया करे। इससे जो लोग देर करके आते उन्हें मेरे कमरे में आना पड़ता । यद्यपि मैं उनसे कुछ नहीं कहता था पर मेरे कमरे में आकर हाजिरी भरने से उनका यथेष्ट शासन हो जाता था। यह क्रम जब तक मै लखनऊ मे रहा, बराबर चलता रहा। एक बेर सर सुंदरलाल स्कूल देखने आए। उन्होंने स्कूल के भवन को देखकर कहा कि कमरो की जहाँ दो दीवाले मिलती हैं वहाँ पलस्तर से सघिस्थान को गोल बना दिया जाय जिससे गरदा न जमने पावे। अप्रैल सन् १९१४ में सर जेम्स मेस्टन ने आकर इस स्कूल का उद्घाटन-संस्कार किया। उस समय जो भाषण उन्होंने दिया उसमे मेरे लिये यह कहा था―

“The Committee is fortunate in sccuring the services as Head Master, of Babu Shyam Sundar Dass of Benares, an educationist of more than provincial repute, whose acquaintance I made in the sacred centre of Benares learning.”

क्रम-क्रम से स्कूल में खेलने का मैदान ठीक किया गया, जमीन