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मेरी आत्मकहानी
 

१९२९ के प्रारंभ मे मैंने इनके परम मित्र पंडित केशवप्रसाद मिश्र से कहा कि ये सब कलात्मक वस्तुएँ वद पड़ी हैं, क्यों नहीं इन्हें गय कृष्णदास सभा-भवन में सजा देते। मिश्र जी के समझाने पर यह "वात इनके मन में भी आगई। मुझे मिश्र जी इनसे मिलने के लिये एक दिन इनके स्थान पर ले गए। वात-चीत करने के अनंतर इन्होंने १३ मार्च सन् १९२९ को एक पत्र सभा को लिखा जिसमें यह कहा गया कि भारत-कला-परिषद् और नागरीप्रचारिणी सभा में संबंध स्थापना के लिये आपका बहुत दिनों से जो मदुद्योग है तदथ में भी सहमत है। इस सबंध के लिये इन्होंने कई शर्तें लिख भेजी जिन पर सभा की प्रबंध समिति के २० मार्च, 3 अप्रैल और २५ मई के अधिवेशनों में, विचार हुआ और निम्नलिखित शर्ते स्वीकृत हुई।

१-इस संग्रहालय का नाम भारत-कला भवन होगा।

२ उस भवन में भारत-कला परिषद् का समस्त समूह जिसे

उसने क्रय, भेंट और मंगनी-द्वारा एकत्र किया है और पुस्तकालय तथा काशी-नागरीप्रचारिणी सभा की हस्तलिखित पुस्तकें और वह सब सामग्री रहेगी जिसका संबंध मारतवर्ष के कला-कौशल, प्रपत्र तथा हिंदी के इतिहास से होगा और जो समय-समय पर प्राप्त या क्रय को जायगी।

३-काशी नागरीप्रचारिणी सभा इस भवन की उन्नति और प्रबंध के लिये कम से कम ६००) वार्षिक न्यय करेगी और आवस्यकता तथा सामर्थ्य के अनुसार इस धन को बढ़ाती रहेगी।

४- इस संग्रहालय का समस्त प्रबंध एक समिति के अधीन रहेगा