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मेरी आत्मकहानी
२८४
 

अवस्था में जीवन है, प्राण है, उत्साह है, उमंग है और सबसे बढ़कर, बात यह है कि भविष्योन्नति के मार्ग पर दृढ़तापूर्वक अग्रसर होने की शक्ति और कामना है। जिनमें ये गुण वर्तमान हैं वे अवश्य उन्नति करते हैं। हिंदी में ये गुण हैं और उसकी उन्नति अवश्यमावी है। हिंदी भाषा और उसके साहित्य का भविष्य बड़ा ही उज्वल और सुंदर देख पड़ता है। आदर तथा सम्मान के पात्र वे महानुभाव हैं जो अपनी कृतियों से इसके मार्ग के कंटकों और झाड़-झंखाडों को दूर कर उसे सुगम्य, प्रशस्त और सुरम्य बना रहे हैं। कुछ लोग हिंदी के विरोध से घबरा उठते हैं। किंतु मैं इस विरोध को ईश्वर की देन समझता हूँ। इससे अपने ध्येय पर आगे बढ़ने की शक्ति हममें आती है। अब तक हिंदी भाषा और साहित्य की जो उन्नति हुई है वह विरोध की अवस्था में हुई।

इस आत्म-कहानी को मैंने १५ अगस्त १९३९ को लिखना आरंभ किया और आज २५ अक्टूबर १९४० को यहाँ पर समाप्त किया। आगे की परमात्मा जाने।

(१७) ऊपर जीन घटनाओं का उल्लेख हो चुका है उनके अनंतर एक विशेष घटना हुई जिसका उल्लेख कर देना आवश्यक है। काशीनागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना १६ जुलाई सन् १८९३ को हुई। उसके जीवन के ४७ वर्ष बीत चुके हैं। अब यह अपने ४८ वें वर्ष में है। इस १७ वर्षों के दीर्घ काल में अनेक स्वनामधन्य महानुभावों ने सभा के सभापति तथा मंत्री के पद को ग्रहण करके यथासाध्य उसके उद्देश्यों को पूर्ण करने तथा उसके कार्यों को सुचारू -