और सबसे बढकर ग्रंथों के लिखने-लिखाने का उत्साह-इन सबने मुझे यह कार्य न करने दिया। इधर मित्रवर मैथिलीशरण
गुप्त ने जोर दिया कि और कामों से छोड़कर इसे मै पहले कर डालूँ। अस्तु अब विचार है कि नित्य थोड़ा घोड़ा समय निकाल कर इस काम को कर चलूँ तो, यदि ईश्वर की कृपा हुई तो समय पाकर यह पूरा हो जायगा।
मुझे अपने पूर्वजो का विशेष वृत्तांत ज्ञात नहीं है। मैने इसके जानने का उद्योग किया पर मुझे उसमें सफलता न प्राप्त हुई। जहाँ तक मैं पता लगा सका मेरा वश-वृक्ष पृष्ट तीन पर लिखित प्रकार से है---
मेरे दादा लाला मेहरचंद का स्वर्गवास थोड़ी ही अवस्था में
अमृतसर में हो गया था। मेरे पिता तया उनके सहोदर लाला
आत्माराम और उनकी बहिन का पालन-पोषण मेरे ज्येष्ट पितामह
लाला नानकचद ने किया। मुझे इनका पूरा पूरा स्मरण है। इन्हें
पूरी भगवद्गीता कंठाग्र थी और वे नित्य इसका पूरा पाठ किया
करते थे। इनका स्वभाव बड़ा निष्कपट, सरल तथा धार्मिक था। ये मुझसे बड़ा स्नेह करते थे। इनकी बड़ी लालसा थी कि मैं शीघ्र ही पढ़ना-लिखना समाप्त करके किसी व्यवसाय में लग जाऊँ और खूब धन कमाकर लक्ष्मी का लाल कहलाऊँ। परंतु उनकी यह कामना पूरी न हो सकी। न तो मेरी शिक्षा उनके जीवन काल में समाप्त हो सकी और न मुझे लक्ष्मी का लाल कहलाने का सौभाग्य ही प्राप्त हो सका। मैंने सरस्वती की सेवा की और कदाचिन् ईश्र्यावश लक्ष्मी सदा मुझसे रूठी रहीं। यह सब होते हुए भी सरस्वती की कृपा