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पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/२२६

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लम्बग्रीव २१७ -सात किया, न जाने कितनी बार पति-हन्ताओं से यह वरी गई, यह अक्षयौवना अाज दुलहिन बनी नई 'सजधज' में सजी खड़ी थी। रंग-बिरंगी ध्वजा, पताका, बन्दनवारों से श्रोतप्रोत । विविध वाद्य, जन-कोलाहल-आपूरित कांच की भाति चमचमाती सड़क पर असंख्य बिजली की दीपावलियों से प्रतिविम्वित चांदनी- चौक में नर-नारी, भावाल-वृद्ध भरे थे। लालकिले के सामने दृष्टि के इस छोर से उस छोर तक नरमुण्ड ही नरमुण्ड दीख पड़ रहे थे। सब कह रहे थे- सौ वर्षों के बाद ! अाज सात सौ वर्षों के बाद ! किसी सौभाग्य की सुखद भावना से उनके मुखमण्डल आनन्दित थे। उनके उत्सुक हृदय आन्दोलित, और भुजदण्ड विजयोल्लास से फड़क रहे थे। लालकिले के सिंहद्वार पर उनकी दृष्टि केन्द्रित थी। वहां एक तथाकथित ऐतिहासिक समारोह हो रहा था, जवाहरलाल नेहरू ऊची भुजा किए किले के सिंहद्वार के ऊंचे कंगूरे पर हाथ में तिरंगा झंडा लिए खडे थे, यूनियन जैक गतयौवना नारी के यौवन की भांति उनके चरणों में झुका हुआ था। कैलाशी को अब और सह्य नहीं हुआ। एक बार दूर तक उस जन-कोला- हल और नरमुण्ड-पूरित नगर-गरिमा के ऊपर, अनन्त नक्षत्रों से भरे आकाग के नीचे अमन्द अंधकार से व्याप्त विश्व पर उन्होंने अमर्ष-मिश्रित दृष्टि डाली। वहां और सब कुछ यथावस्थित था, परन्तु चन्द्रकला नहीं थी। अन्ततः उनकी सर्वव्यापिनी दृष्टि सुदूर देश-प्रांत में इधर-उधर घूमकर एक अंधेरे मरुस्थल में, एक चल चंचल कृष्णकाय क्षुद्र बिन्दु पर केन्द्रित हुई। उन्होंने भृकुटी कुंचित करके देखा और फूत्कार की, त्रिशूल उठा लिया और डमरू हाथ में लेकर बजाया- डम-डम-डम-डम 'डमर-डमर-डम डमर-डमर डमर-इमर डमर-डमर डम-डमर-डमर-डम डमर-डमर। नन्दी ने हुंकार भरी. शृङ्गी-भृङ्गीगण दौड़ पड़े, उमा निद्रा से चौक पड़ी,