राजनीतिक कहानिया लिखना मैने सीखा था, फिर वह मेरा स्वाभाविक गुण था । शीघ्र ही मेरी सोलहों कलाएं पूर्ण हो गईं। मैं देश में सितारे की भाति चमकने लगा। मेरा सम्मान चरमकोटि पर पहुंचा; पर मेरा हास्य, मेरा सुख सदा के लिए गया । मै सदा ही शक्ति, थकित और चिन्तित रहता, मानो मृत्यु परछाई की तरह मदा मेरे पीछे रहती थी। मैं उससे बहुत ही डरता था। अब मृत्यु ही मेरे हृदय और मस्तिष्क के विचारने का विषय रह गई, परन्तु क्या कहूं ? इस दुःख मे भी एक वस्तु' थी, जो प्राणों से चिपट रही थी-वही स्त्री और शिशु कुमार। राजा साहब को मैंने कभी नहीं समझा, पर उनसे कभी डरा भी नहीं । उनके नेत्र अद्भुत थे, और देखने का ढंग और भी अद्भुत--छोटा सा मुख, बडी-बड़ी मूंछे, उसपर भारी सा हम्मामा, और काले चश्मे से ढकी हुई वे अद्भुत रहस्यमयी अांखें। सभी कहते थे, राजा साहब से हम डरते हैं, पर मैं कभी न डरा । वे पाते ही सदैव पहले मुझे प्यार करते, तब पिताजी से बात करते थे। वे पिताजी के अनन्य भक्त थे, पिताजी के दीक्षा लेने के पूर्व से ही। उनके संन्यस्त होने के बाद तो वे उनके शिष्य ही हो गए थे। बहुधा उनमें एकान्त मे वातचीत होती, घण्टों और कभी-कभी दिनों तक । वे खाना-पीना-सोना भी भूल जाते । तब भी मै उनके विषय को न समझ सका था और अब, इतना बडा होने पर भी, नहीं समझ सका । एक ही बात प्रकट थी कि वे बड़े भारी देशभक्त हैं। मैं भी देशभक्त था। बस, यही हमारा-उनका नाता था। वह धीरे-धीरे वढ़ा । पहले वह जैसे मुझे प्यार करते थे, वैसे अब वे शिशु कुमार को प्यार करने लगे यह बात मुझे और मेरी पत्नी को बहुत भाती थी। पर वे कभी-कभी शिशु कुमार को छाती से लगाकर मेरी ओर ऐसी मर्म-भेदनी दृष्टि से ताकते थे कि मैं घबरा जाता था। तभी तो मैं कहता था कि वह दृष्टि बड़ी अद्भुत थी। उस समय मैं उसे समझा नहीं, समझा तब जब मैं स्त्री, पुत्र, प्राण, जीवन सब कुछ उन्हें देकर महापथ पर महायात्रा के लिए अग्रसर हुआ । श्राज वे अांखे १५ वर्ष से प्रतिक्षण मुझे घूर रही है। उनसे एक क्षण भी बचना मेरे लिए अशक्य है। राजा साहब ने मुझसे जिसलिए परिचय बढ़ाया था उसका मुख्य कारण धीरे-धीरे उन्होंने खोला। मैं ज्यों-ज्यों सुनता था, भयभीत होता, पर यत्न से "भय को छिपाकर उत्साह प्रदर्शित करता था। फिर भी मालूम होता. मानो वे
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