'वह तो मैं अम्बपाली का स्वीकार कर चुका !'
राजा निरूतर हुए। वे फिर प्रणाम कर लौटे । कुछ श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कुछ लाल और कुछ आभूषण पहने थे।
अम्बपालिका रथ में बैठकर लौटी। उसने आज्ञा दी-मेरा रथ लिच्छवि महाराजाओं के बराबर हांको । उनके पहिए के बराबर मेरा पहिया और उनके धुरे के बराबर मेरा धुरा रहे, तथा उनके घोड़े के बराबर मेरा घोड़ा।
लिच्छवियो ले देखकर क्रोध-मिश्रित आश्चर्य से पूछा-अम्बपालिके, यह क्या बात है ? तु हम लोगों के बराबर अपना रथ हांक रही है ?
उसने उत्तर दिया-मेरे प्रभु! मैने तथागत और उनके शिष्यवर्ग को भोजन का निमन्त्रण दिया है और वह उन्होंने स्वीकार किया है ।
उन्होंने कहा-है अम्बपाली ! हमसे एक लाख स्वर्ण-मुद्रा ले और यह भोजन हमे कराने दे।
'मेरे प्रभु, यह सम्भव ही नहीं है !'
'तब १०० ग्राम ले और यह निमन्त्रण हमें बेच दे।'
'नहीं स्वामी ! कदापि नहीं।'
'आधा राज्य ले और यह निमन्त्रण हमें दे दे।'
'मेरे प्रभु ! आप एक तुच्छ भूखण्ड के स्वामी हैं, पर यदि समस्त भूमण्डल के चक्रवर्ती भी होते और अपना समस्त साम्राज्य मुझे देते तो भी मैं ऐसी कीर्ति की जेवनार को नहीं बेच सकती थी।'
लिच्छवि राजाओं ने तब अपना हाथ पटककर कहा- हाय ! अम्बपालिका ने हमें पराजित कर दिया, अम्बपालिका हमसे बढ़ गई । अम्बपालिके ! तब तुम स्वच्छन्दता से हमसे मागे रथ हांको । अम्बपालिका ने रथ बढ़ाया। गर्द का एक तूफान पीछे रह गया।
दस सहस्त्र भिक्षुओं के साथ भगवान् बुद्ध ने अम्बपालिका के प्रासाद को आलो- कित किया । वैशाली के राज-मार्ग में नगर के प्राण आ जूझे थे। महापुरुष बुद्ध और उनके वीतरागी भिक्षु भूमि पर दृष्टि दिए पैदल धीरे-धीरे आगे बड़ रहे थे। नगर के श्रेष्टिगण दुकानों से उठ-उठकर मार्ग की भूमि को भगवान् के चरण रखने से पूर्व अपने उत्तरीय से झाड़ रहे थे। कोई नागरिक भीड़ से निकलकर