पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/३०६

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भाव कहानिया मस्तक होना ही पडता था । दोनों ही ये अभिन्न सखियां अब दो विभिन्न मनोवृत्तियों और परि- स्थितियों से लदी-फदी जीवन की देहरी पर खड़ी थीं, जागरूक और ज्ञान- गरिमा से परिपूर्ण । एक अभी तक कुमारी थी-प्रात्मार्पण से अछूती, विश्व की नई सभ्यता, शिक्षा, आदर्श और जीवन-ध्येय का विधिवत् अध्ययन करके अपनी सम्पूर्ण चेतना, निष्ठा और विवेक की स्वतन्त्र स्वामिनी ; अपने अधि- कारों के ज्ञान से सम्पन्न और उसकी रक्षा में समर्थ ; आशा, आकांक्षा और साहस का पुंज प्रात्मा में संजोए हुए । और दूसरी थी--पत्नीत्व, मातृत्व और गृहिणीत्व की गरिमा से सम्पन्न श्रात्मार्पित, कर्तव्यपरायण नारी ; अधिकारों का समूल विसर्जन किए हुए , त्याग, तप और प्रेम की ज्योतिर्मयी दीपशिखा। दोनों परस्पर अभिमुख थी। रेखा ने इस थोड़े से ही समय में उसका श्रम, तत्परता, सेवा और गृहिणी-रूप देख लिया था । वह प्रभावित हुई थी। उसने यूरोप और सोवियत भूमि की जागरित नारियां देखी थीं जो केवल घरों में ही नहीं, जीवन के प्रत्येक पहलू मे पुरुषों से कन्धा मिलाकर चल रही थीं । परन्तु यहा उसने जो कुछ देखा वह तो सर्वथा नवीन था। उसने देखा था-नारी का एक अपना क्षेत्र, जहा पुरुष का कोई प्रवेश ही नही है। किन्तु पुरुष के जीवन की सफलता केवल उस पर निर्भर है। वहां अकेली ही श्रद्धा उसकी सखी निर्द्वन्द्व चली जा रही है, बाधा और शंकाओं रहित ; घर के पशु श्रीर नौकरों से लेकर छोटी से छोटी चीज पर भी ममत्व बखेरती हुई। सब कामों और भोजन से निवृत्त होकर दोनों सखियां बैठी । बातें प्रारम्भ ? श्रद्धा ने पूछा-~-सखी ! तूने सारी दुनिया की खाक छान डाली। सारी दुनिया तूने देखी और समझी। यह बता मुझे, कहीं सौंदर्य के भी दर्शन हुए 'हुए, दक्षिणी अफ्रीका के एक निर्जन मैदान में, जब मैं वहां का प्रसिद्ध जलप्रपात देखकर लौट रही थी ।' श्रद्धा हंस पड़ी। बड़ी स्वस्थ थी वह हंसी। उसने कहा---'वाक पत्थर । सौन्दर्य के तुझे दर्शन हुए भी तो अफ्रीका में। भला काला था या गोरा यह सौन्दर्य । होंठ उसके कितने मोटे थे?