पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/४१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'विदीर्ण करना होगा ?" "गोपा का माथा धूमने लगा। वह जोर से कुमार का आलिंगन करके रोने लगी। वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, पर कुछ कह न सकती थी ; वह बहुत दिन से एक आशङ्का को मन से दूर करने की चेष्टा कर रही थी, पर कर नहीं सकती थी। कुमार के भाव को वह कुछ समझ न सको, पर 'हृदय विदीर्ण होने की भावना वह सह न सकी--वह पति के वक्ष- स्थल पर गिरकर फूट-फूटकर रो उठी। एक बार महाराजकुमार की अन्तर्हित प्रबुद्ध सत्ता फिर मूर्छित हुई । उन्होंने गोपा को गाढ़ा प्रालिंगन करके बारम्बार उसका चुम्बन किया । धीरे-धीरे दोनों प्राणी शयनकक्ष की ओर चले गए। 'देखो प्रिये, यह क्या हो रहा है ?' कुमार ने मुझकर डाली पर झुके एक पुष्प की ओर संकेत करके कहा। गोपा ने देखा और वह आश्चर्य चकित हो कुमार की तरफ देखकर बोली- आर्यपुत्र का अभिप्राय क्या है ? 'अभी कुछ देर पूर्व सूर्य की किरणों ने इस पुष्प को छुआ, यह खिल पड़ा। सूर्य तो अस्त हो रहा है, और यह मुर्भा रहा है। अब यह सूखकर झड़ जाएगा।' यह कहकर उन्होंने पत्नी की ओर देखा। गोपा कुमार की मुख-मुद्रा को एकटक देख रही थी । कुमार ने फिर कहा- गोपा प्रिये ! मनुष्य का जीवन भी ऐसा ही है। उनकी दृष्टि गोपा के मुख से हटकर एक बार दोलायमान हुई और फिर वह दूर क्षितिज पर डूबते हुए सूर्य पर अटक गई। मुख पर कुछ हास्य-रेखा पाई, पर वह गई नही। वे जड़वत् वैसे ही बैठे रहे। गोपा घबरा गई। उसने कहा-आर्यपुत्र अब और क्या विचार रहे हैं ? कुमार ने चौंककर कहा-प्रोह कुछ भी तो नहीं, प्रिये ! आज मैं नगर मे गया था। वहां मैंने राजपथ पर एक पुरुष देखा, वह एक लाठी के सहारे बड़े कष्ट से चल रहा था । उसके नेत्र इतने विभ्रम थे कि उनको अपेक्षा नेत्र न होते तो हानि न थी ; दांत सभी गिर गए थे। उससे उसका मुख तो विकृत हो ही गया था, वाणी भी स्पष्ट हो गई थी, उसकी खाल काली होकर लटक गई थी। और हड्डियां चमक रही थीं । उसका अंग-अंग कांप रहा था। वह बड़े चाव से