पृष्ठ:मेरी प्रिय कहानियाँ.djvu/७१

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दुखवा मैं कासे कहूं मोरी सजनी यह कहानी सम्भवतः आचार्य की सबसे अधिक प्राचीन कहानी है। और सन् १४ या १५ के लगभग लिखी गई थी। उन दिनों वे चिकित्सक की हैसियत से किसी रियासत में एक राजकुमारी की चिकित्सा करने गए थे। वहां जो उन्होंने राजकुमारी का रूप-वैभव और उसके शरीर पर लाखों रुपये मूल्य के हीरे-मोती देखे और राजकुमारी को जो मनोवृत्ति का अध्ययन किया तो उतीसे प्रभावित होकर उन्होंने इस कहानी की सृष्टि की थी। तब एक क्वटर यह भी उठा था कि यह कहानी चोरी का माल है । किसीने उसे गुजराती से, किसीने मराठी से और किसीने उर्दू से चुराई हुई बताया था। तब आचार्य ने इन समालोचक-पुद्भवों को एक संक्षिप्त उत्तर दिया था कि चोरी के जुर्म में वे सूली पर चढ़ने को तैयार है, बशर्ते कि ये समालोचकगण उनकी विधवा कलम का पाणिग्रहण करने को तैयार हों। अयोग्य समालोचकों के मुंह पर यह एक करारा तमाचा था। तब से यह कहानी बहुत प्रसिद्ध हो गई। भारत के भिन्न-भिन्न विश्वविद्यालयों में उसे आज के तरुणों के पिताओं ने पढ़ा। और अब आज के तरुण पढ़ रहे है। कहानी में उत्कट मानसिक आघात-प्रतिवातों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तो है ही, मुगलों के राजसी वैभव के खरे रेखा-चित्र भी हैं। और इन चित्रों का इतना सच्चा उतरने का कारण यह था कि उन दिनों आचार्य का राजामहाराजाओं के अन्त पुर में बहुत प्रवेश था। और चिकित्सक के नाते उन्हें गुप्त से गुप्त बातें भी ज्ञात होती रहती थी। परन्तु कथा का मूलधार एक मशहूर किस्सागो के दन्त किस्से के पर आधारित था। उन दिनो दिल्ली में शाही जमाने के कुछ किस्सागो जिन्दा थे, जो शाही परम्परा से रईसों को किस्से सुनाने का खानदानी पेशा करते आए थे। एक किस्सा सुनाने की उनकी फीस दो रुपये से लेकर पचास रुपये तक होती थी। आचार्य को इन किस्सों से बहुत लगाव था। और कहना चाहिए उनकी कहानी लिखने में प्रवृत्ति किसी साहित्यिक प्रेरणा से नही हुई, इन किस्सागो लोगो की ही वाणी से हुई । इस प्रकार यह कहानी यदि चोरी का ही माल है तो किसी साहित्य की चोरी का नहीं, एक किस्सागो के मुंह से चुराया हुआ है। इस कहानी के इतिहास में एक बात यह कहनी और है कि इसकी फीस दो रुपए उन्हें देनी पड़ी थी। और जब यह कहानी प्रथम बार सुधा में छपी तो उन्हें मुबलिग पांच रुपए पुरस्कार (१) मिले थे।