प्रत्यक्ष है कि मातृभाषाको धीरे धीरे प्रतिष्ठा बढ़ने लगी है। हमें यह लिखते और भी प्रसन्नता होती है कि हमारे नवजीवनके
उदार पाठ कोंमें अनेक किसान और मजूर है। वे भी भारतके
अङ्ग है। उनकी हीनता, दीनता और दरिद्रता भारतके लिये पाप
है। उनका सुधार और उन्नति ही भारतको मनुष्यके रहने योग्य
देश बना सकती है। उनकी संख्या भी कम नहीं है। प्रायः ८०
प्रति सैकड़े इनकी ही संख्या है। और अंग्रेजोंका अनुमान करते
तो हंसी आती है। भारतमें उनकी संख्या भूसीमें अन्नके
दानेके बराबर है।
यही कारण है कि यद्यपि हमारा दृढ़ मत है कि भारतका उपकार करनेवाले प्रत्येक उदारचित्त महानुभावोंकी चेष्टा भार- नवासियोंके समक्ष अंग्रेजी जाननेवालों के सुविचारोंको मातृ- भाषामें लिखकर रखनेकी होनी चाहिये, फिर भी जब तक हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं हो जाती और जब तक इसका प्रचार सारे भार- तमें नहीं हो जाता, नथा जब तक प्रत्येक व्यक्ति इसके प्रयोगकी योग्यता नहीं प्राप्त कर लेता, जब तक हिन्दी शिक्षाका माध्यम नहीं बन जाती तब तक हमें वाध्य होकर उन लोगोंके ख्यालसे जिनमें हिन्दीका प्रचार नहीं है विशेषकर मद्रासवालोंके लिये, अंग्रेजी भाषाका ही प्रयोग करना पड़ेगा।
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सर्वसाधारणके दोषों और त्रुटियोंकी कड़ी आलोचना करते हुए यङ्ग इण्डियाका प्रधान लक्ष्य सत्याग्रहकी मीमांसा करना