वाजो का परदा उठा दीजिये और भारत को सच्ची सितिका
पर्यवेक्षण करने दीजिये । ऐसी अवस्था में खिलाफत आन्दोलन में भाग लेने का यह अभिप्राय हुआ कि ऐसे आन्दोलन में भाग लिया जा रहा है जिसके द्वारा ब्रिटिश प्रधान मन्त्री की प्रतिक्षा को पूरी कराई जाय । यदि विचार कर देखा जाय तो इस तरह के पवित्र आन्दोलन के लिये उससे कही अधिक त्याग उचित प्रतीत होता है जितना कि असहयोग आन्दोलन में करना होगा ।
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जून १ . १६३१
मिस्टर ज्राचारिया ने अपने साप्ताहिक पत्र में एक लेख लिखा
था। इस लेखका शिषक था,'अहिंसा के विरोधो खिलाफत के
सिद्धान्त को हाथ में लेकर कोई भा मनुष्य अहिंसा का प्रतिपादक
कैसे बन सकता है?" सर्वेण्ट आफ इण्डिया सोसायटी के
मिस्टर बेनने यह लेख मेरे पास भेजा है और कहा कि आप
खिलाफत के प्रश्नपर उन युक्तियों के आधार पर विचार कीजिये
जिनका प्रतिपादन इस लेख के लेखक ने किया है । लेखक ने लिखा है:---"मुझे न तो खिलाफत के सिद्धान्त के मूल्य की परषा है