दें इसी समय महात्माजी ने भी बडे लाटके पास एक पत्र भेजा जिसमें उन्होंने खिलाफत के साथ अपने सम्बन्ध की पूरी व्याख्या की थी। उन्होंने उस पत्रमें सविस्तर दिखलाया था कि ब्रिटिश सरकार की इस नीति का फल मैंने मुसलमानों मे बढ़ते असन्तोष और ब्रिटिश सरकार के प्रति उनके अविश्वास को देखा और उन्हें सान्त्वना दिया कि निराश होने का कोई कारण नहीं है। पर सन्धि की जो शर्ते पेश को गई हैं उनसे प्रधान मन्त्री का प्रतिज्ञा भग हो गई है और मुसलमानों के धार्मिक भावों को रक्षा नहीं की गई है। मैं कट्टर हिन्दुहूं और अपने मुसलमान भाइयो के साथ अपना घना सम्बन्ध बनाये रखना चाहता हूं। ऐसी अवस्था में यदि इस सकट के समय मैं उनके काम न आया तो मैं सचा भारतीय कहलाने के योग्य नहीं रहा हण्टर कमेटो के बहुमत की रिपार्ट तथा आपके खरीतोने हमलोगां के अविश्वास को और भी बढ़ा दिया। ऐसी अवस्था में मेरे सदृश मनुष्य के लिये दो ही मार्ग रह गया हैं कि तो हताश होकर ब्रिटिश शासन के साथ हरतरह से सम्बन्ध त्याग दू और नाता ताड दूं या यदि ब्रिटिश न्याय और शासन प्रणाली में कुछ भी विश्वास शेष रह गया है तो ऐसा यत्न करू जिससे इन बुराइयों का प्रतिशोध हा जाय और सरकार को नीति विश्वास करने के योग्य हो जाय। ब्रिटिश शासन प्रणाली को उत्कृष्टता में मेरा आज भी विश्वाम है और मुझे पूर्ण आशा है कि यदि किसी प्रकार से हम लोगों ने योग्यता दिखलाई तो अब भी हम लोगोंके साथ न्याय हो सकेगा।
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