पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२२)
[तीसरा
याक़ूतीतख़्ती


चौथा परिच्छेद

निदान, मैं बिना कुछ उत्तर दिए ही उस अंधेरी और पथरीली गुफा में घुसा, जिसमें न बिछौना था और न ओढ़ना। अस्तु अपने भाग्य और परमेश्वर पर भरोसा रख कर मैं उसी गुफा में खाली ज़मीन पर बैठ गया और उसके प्रवेशद्वार को अफरीदियों ने पत्थर की चट्टान से बंद कर दिया। उस समय मैं मानो अंधकार-समुद्र में डूब गया था और खोह की पथरीली धर्ती में मारे जाड़े के हाथ पैर ऐंठे जाते थे। उस समय मेरे मन में तरह तरह की तरंगें उठती थीं और यही जान पड़ता था कि बस, अब मैं कल का सूर्योदय न देखंगा और मेरी समाधि इसी अफरीदी-कारागार ही में हो जायगी। किन्तु, फिर भी मैने अपने धैर्य को नहीं छोड़ा था। जगदीशबाबू! न मेरे माता पिता थे और न स्त्री; बस इसी कारण से मुझे कोई चिन्ता न थी, किन्तु उन दुराचारियों के हाथ पशु की मौत मरना पड़ेगा, यह जान कर कभी कभी मेरा कलेजा दहल उठता था।

इसी उधेड़बुन में न जाने कितनी रात बीत गई, इसका ज्ञान उस समय मुझे न था; क्योंकि मैं अंधेरी गुफ़ा में कैद किया गया था। "जगदीश बाबू! यह सुन कर तुम अचरज मानोगे, पर बात सचमुच ऐसी ही थी; अर्थात उस अफरीदी कारागार में भी मुझ पर निद्रादेवी ने बड़ी कृपा की थी और मैंने देर तक नींद का सुख लिया था। किन्तु इस सुख में कितनी देर तक मैं मग्न था, यह मैं न जान सका। एकाएक किसी आवाज़ से मेरी आंखें खुल गई और मैंने हाथ में मशाल लिए हुए एक अफरीदी सिपाही को अपने सामने देखा। वह आवाज़ उसी सिपाही की थी, जिसने व्यर्थ मुझे छेड़ कर मेरी सुख की नींद को खो दिया था।

आखिर, जब मैं नींद से चौंका तो उस सिपाही ने कहा,-"अगर तुम्हें कुछ खाने पीने की ज़रूरत हो तो कहो, उसका इन्तज़ाम कर दिया जाय।"

यह सुन कर मैंने कहा,-"दुराचारी अफ़रीदियों के कारागार में रह कर में उन्हीं बेईमानों के दिए हुए अन्त जल से अपनी भूख प्यास