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[पांचवां
याक़ूतीतख़्ती


अपने बेअसूल मज़हब को छोड़ कर पाक दीन इस्लाम को कबूल करे। बस, अगर यह कैदी मुसलमान हो जाय, तो इसकी जान न ली जायगी, लेकिन जबतक यह जीता रहेगा, इसे बराबर अफरीदी जलखाने में कैद रहना पड़ेगा।"

इतना कहकर मेहरखां ने मेरी ओर देखा और कर्कशस्वर से कहा,-"अय, काफिर नौजवान! मैं तुझे तीन दिन की मोहलत देता हूं; इन तीन दिनों में तू बखूबी इस बात पर गौर करले कि तू अपनी जान देना चाहता है, या मुसलमान होकर अफ़रीदी जेलखाने में रहना।"

इतना कहकर उसने अपने सिपाहियों की ओर देखकर, जो कि मुझे उस खोह से निकाल कर इस दरबार में लाए थे, कहा,"सिपाहियों इस काफिर कैदी को लेजाकर बदस्तूर उसी जेलखाने में बंद करदो।"

इतना कह और अपने तख्त से उतरकर मेहरखा दरबार-गृह से बाहर चला गया। उस समय एकाएक मेरी दृष्टि अबदुल की ओर जा पड़ी तो मैंने क्या देखा कि वह नर राक्षस मेरी ओर देख देख कर पैशाचिक हास्य कर रहा है। हा! नारकीय पिशाच के उस वीभत्समय हास्य को देखकर मैंने घृणा, अवज्ञा और तिरस्कारपूर्वक उसकी ओरसे अपनी आंखें हटा लीं और साथही मैंने हमीदा की ओर आंखें फेरी, जो अब तक अपने पिशाच पिता के सिंहासन के पास सिर झुकाए हुए खड़ी थी और स्त्रीजनोचित अभिमान से जिसका चेहरा तुषारदग्ध कमल की भांति हो रहा था। जिस दिन मैने गोर्खे सिपाहियों के हाथ से हमीदा की रक्षा की थी, उन दिन प्रदोष काल के हलके उजाले में सैने उस अपमानपीड़िता वीर्यवती अफरीदी कुमारी के नेत्रों में जैसी दिव्य ज्योति देखी थी, आज स्नेहमय पिता के पदप्रान्त में, प्रकाश्य दरबार में, स्वजातीय अमात्यमंडली और योद्धाओं के आगे इस प्रकार अपमानित और उपेक्षित होने पर उसके नेत्रों की वह ज्योति न जाने कहां जाकर विलीन हो गई थी और उन नेत्रों में अभिमान ले उमंगे हुए आंसुओं की बाढ़ दिखलाई देने लगी थी। हाय, तब मैंने समझा कि पर्वतबासिनी पठानी हमीदा निरी पाषाणी नहीं, बरन रक्तमांसशरीरा नारी ही है और विधाता ने इस पार्वतीय कुसुम में भी अपनी निज सम्पत्ति अर्थात् कोमलता और सुगन्धि दी है।