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[ग्यारहवां
याक़ूतीतख़्ती


ग्यारहवां परिच्छेद

कुछ देर तक मैं चुप था, हमीदा भी चुप थी; फिर मैंने उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर कहा,

"प्यारी, हमीदा! जिस दिन, उस प्रदोष काल के समय मैंने आततायी गोरखों के हाथ से तुम्हारी रक्षा की थी, उसी दिन, उसी समय में तुम पर मोहित हो गया था, परन्तु इतना साहस नहीं होता था कि मैं अपना प्रेम तुम पर प्रगट करूं। मैंने मनही मन यह निश्चय कर लिया था कि इस प्राण को चुपचाप तुम्हारे अर्पण कर दूंगा और जन्मभर तुम्हारी ही याद में रह कर अन्त में तुम्हारी ही चिन्ता करते करते मर जाऊंगा; परन्तु प्यारी, हमीदा! तुम्हारे प्रत्येक कार्य से ऐसा ज्वलंत प्रेमासव प्रगट होने लगा कि अन्त में मुझे अपना सच्चा प्रेम तुम पर प्रगट कर ही देना पड़ा।"

हमीदा ने कहा,-"तो, प्यारे, निहालसिंह! मैंने भी तुमसे कब अपना 'प्रेम' छिपाया! और सच तो यह है कि जब तुमने उन पाजी ग्रोखों के हाथ से मेरी आबरू बचाई थी, तभी,-ठीक उसी समय, मैं भी तुम पर हज़ार जान से आशिक हो गई थी। तभी तो मैंने इतनी ज़िद कर के अपनी 'याकृतीतख्ती' तुम्हारी नज़र की थी। मैं भी, प्यारे! यही तय कर चुकी थी कि अपना इश्क तुम पर हर्गिज़ ज़ाहिर न करूंगी और तामर्ग सिर्फ तुम्हारी ही याद में इस ज़िन्दगी को बसर कर दूंगी, लेकिन मुझसे भी ऐसा न होसका और आखिर दिल की कमजोरी के सबब वह ज़ाहिर हो ही गया। किसीने सच कहा है कि इश्क और मुश्क की बू लाख छिपाने पर भी नहीं छिपती।"

मैंने कहा,-"इसीसे तो कहता हूं, प्यारी! कि जब परस्पर प्रेम प्रगट हो ही गया और अब अलग होने से प्रत्येक प्रेमी की जानों पर आ बनेगी तो अब क्यों न हम दोनो सदा के लिए एक हो जायं और कभी एक दूसरे से जुदा न हो।"

हमीदा कहने लगी,-"प्यारे! यह तुम्हारा कहना सही है कि जुदाई का सदमा बड़ा बुरा होता है और इसमें आशिकों की जानों पर आ बनती है, लेकिन मैं बहुत ही परीशान हूं कि अब क्या करूं? एक