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पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/७०

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[ग्यारहवां
याक़ूतीतख़्ती


हमीदा,-"लेकिन, निहालसिंह! यह गैर मुमकिन है। देखो, सोचो तो सही, तुम्हारे खातिर मैंने क्या क्या न किया। अपने मुल्क, अपने बालिद, अपनी कौम और अपने मज़हब के बिल्कुल खिलाफ कार्रवाइयां मैंने की। गो, तुम अब मेरे दोस्त हो, लेकिन, मेरे मुल्क, मेरी कौम और मेरे मज़हब के तो तुम पूरे दुश्मन हो। ऐसी हालत में मैंने तुम्हारी तरफदारी करके कितना बड़ा गुनाह किया है! क्या मेरे इन गुनाहों की मांफी होसकती है? हर्गिज़ नहीं: ऐसी हालत में भला अब मैं तुम्हारा साथ क्यों कर देसकती हूं।

मैंने कहा,-"तो क्या अब तुम मुझसे बिदा होकर अपने पिता के पास लौट जाओगी।"

हमीदा:--"हां ज़रूर लौट जाऊंगी और अपना सारा कसूर अपने वालिद पर ज़ाहिर करके उनसे अपने इन गुनाहों की सज़ा लूंगी।"

हमीदा की यह बात सन कर मैं कांप उठा और बोला,-"क्या सारी बातें तुम अपने पिता पर प्रगट कर दोगी,"

हमीदा,-"हां, कुल बातें ज़ाहिर कर दूंगी। यहां तक कि तुम्हारी मुहब्बत और उस पहरेदार के मरवाने का हाल भी छिपा न रक्खेंगी।"

मैंने कहा,-"तो मुझे विश्वास है कि तुम्हाराबाप तुम्हारे अपराधों को क्षमा कर देगा"

हमीदा,-"तुम्हारा ऐसा समझना सरासर भूल है। क्योंकि मेरा बालिद इस मिज़ाज का आदमी नहीं है कि मेरे कसूरों का हाल सुन कर वह मुझे माफ़ कर देगा।"

मैं,-"तो फिर वह कौनसी सज़ा तुमको देगा!"

हमीदा,-"कत्ल की सज़ा, और यही मैं चाहती भी हूं।"

यह सुन कर मैं एक दम थर्रा उठा और कहने लगा,-"हाय, तुम क्या किया चाहती हो!"

हमीदा,-"निहालसिंह! तुह्मारे बगैर मैं जी कर क्या करूंगी! भला, तुम्हारी जुदाई से मेरी जान बच सकेगी! ऐसी हालत में मैं यही बिहतर समझती हूं कि अपने कसूरों को अपने वालिद पर ज़ाहिर कर के उनसे कत्ल की सज़ा पाऊं। और अगर उन्होंने मुझ पर रहम किया, यानी मुझे मुआंफ़ किया और मुझे कल की सज़ा न दी, तो भी मैं अब ज्यादा दिन न जीऊंगी और बहुत जल्द खुदकुशी करके इस इश्क की आग से अपनी रूह को बवा दूंगी।"