पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(७०)
[बारहवां
याक़ूतीतख़्ती


बारहवां परिच्छेद

कुसीदा! आश्चर्य!!! इस नवयुवक वीर के बेश में कुसीदा!!! और क्यों न हो, जबकि वह सब भांति से अपनी बहिन हमीदा के अनुरूप ही थी।

निदान, कुसीदा को पहचान कर हमीदा उसके गले से लपट गई और बोली,-"प्यारी बहन, कुसीदा! तू यहां क्योंकर आई?"

कुसीदा,-"बहिन! तुम्हारे हुक्म बमूजिव में इस बात की चौकसी करती थी कि जिसमें तम्हारे गायब होने का हाल किसीको भी न मालूम हो, लेकिन न जाने क्यों कर तुम्हारे गायब होने का हाल अबदुल को मालूम होगया। तब उसने तुमपर किसी किस्म का शक करके उन जल्लादो से निहालसिंह के बारे का सच्चा हाल दाफ्त कर लिया और वालिद से सारा हाल बयान कर के कुछ थोड़ी सी फ़ौज के साथ तुम दोनों की गिरफ्तारी के लिये वह इधर रबान हुआ। यह हाल जान कर मैंने पहिले तो उन दोनो जल्लादों को मार डाला, जिन्होंने तुम्हारे पोशीदा राज़ को अबदुल पर खोल दिया था; फिर मैं एक नौजवान की सूरत बन कर अबदुल की फ़ौज में आमिली और बराबर उसके साथ रही। यहां आकर उसे यह मालूम हुआ कि,'चमन की घाटी में एक पहरेदार गोली से मारा हुआ पड़ा है।' यह जानकर उसने इसे तुम्हाराही काम समझा और इस ओर को उसने कूच किया। अभी थोड़ी देर हुई कि वह यहां पहुंचा और अपनी फौज को एक जगह पर, जो कि यहांसे थोड़ी दूर पर है, ठहरा कर तुम्हें खोजता हुआ इधर आया। मैं भी उसकी नज़रों से बचती हुई उसके पीछे लगी और यहां पर आकर उसके पासही एक झाड़ी में छिप रही। बस, जब भाला लेकर वह इन पर (निहालसिंह की ओर इशारा करके) झपटा तो मैने पीछे से दौड़ कर इस पाजी का काम तमाम कर दिया।"

अपनी योग्य बहिन की ज़बानी यह हाल सुनकर हमीदा उससे लपट गई और बड़े प्यार से उसके मुखड़े पर हाथ फेरती हुई बोली,"प्यारी, बहिन! तूने बड़ा काम किया, वरन आज मेरे प्यारे निहालसिंह के दुश्मनों की जान जाही चुकी थी।"