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पृष्ठ:याक़ूती तख़्ती.djvu/७४

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[बारहवां
याक़ूतीतख़्ती


में कदम क्यों रक्खा?"

मैं कुसीदा के ऊपर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और मनहीमन उसे कोटि कोटि धन्यवाद देने लगा, क्योंकि उसने हमीदा से मेरे खातिरखाह सिफ़ारिश की थी।

निदान, बहुत कुछ कहने सुनने पर अन्त में हमीदा मेरे साथ चलने पर राज़ी हुई और कुसीदा से बोली:--"लेकिन प्यारी, बहिन! मेरे जाने पर तुम्हारे ऊपर तो कोई आंच न आवेगी?"

कुसीदा.- क्या सच्ची बात कहूं?"

हमीदा, -- हां, हां, सचही कहो।"

कुसीदा,-" महल में मेरे न रहने के सबब वालिद ने मेरे कत्ल का भी इश्तहार देदिया है। इसी सबब से में मरदानी लिवाल में भेस बदल कर अबदुल के गरोह में मिली थी!"

हमीदा,-"तो तुम कहां जाओगी।'

कुसीदा,-"मैं कब्र में जाऊंगी, क्योंकि मेरा मरना जीना, बराबर है और इसका सबब यह है कि अभीतक में हज़रत-ई-इश्क के चकाबू में नहीं फंसी हूं।”

हमीदा,-"लेकिन, प्यारी, बहिन! ऐसा हर्गिज़ नहीं होसकता कि मैं अपनी जान तो बचाऊं और तुम्हें जल्लादों की तल्वार के साये तले छोड़ जाऊं। इससे तो यही बिहतर होगाकि तुमभी मेरे साथ चलो और जिस तरह मेरे साथ पैदा हुई हो, उसी तरह हर हाल में मेरा साथ दो।"

यह सुनकर मैंने कहा,-" कुसीदा बीबी! यह बात आपकी बहिन ने बहुत अच्छी कही है। इसलिये यह बहुत ही अच्छा होता, यदि आपभी अपनी बहिन के साथ मेरे घर चलती। वहां जाने पर आपको भी कोई न कोई सच्चा आशिक मिलही जायगा और तब आप भी अपनी नौजवानी को बिल्कुल बेकार और जवाल न समझेगी।"

निदान, दोनो बहिने चलने के लिये तैयार हुई और हमीदा आगे, मैं बीच में और कुसीदा पीछे पीछे चली। परमेश्वर की दया से फिर मुझे कोई कष्ट वा दुःख न झेलना पड़ा और न किसी अफरीदी सिपाही का सामना हुआ। दोपहर ढलते ढलते मैं अफरीदी सीमा से बाहर हुआ और अपने कैम्प में पहुंच गया।

मैंने अपने घाव को दिखला कर सारा हाल अपने अफ़सर और महाराजा साहब से कहा, जिसे सुनकर वे दोनो बड़े प्रसन्न हुए और