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[तेरहवां
याक़ूतीतख़्ती


किन्तु मेरी बात पूरी भी न होने पाई थी कि न जाने किस ढंग से निहालसिंह ने मेरे हाथ से पिस्तौल छीन ली और उसकी गोली आकाश में छोड़ कर कहा,-"वाह, भई! तुमतो केवल कुसीदा का वर्णन ही सुन कर इतने बहक गए! तो फिर उसके देखने पर तुम्हारी क्या अवस्था होगी!"

मैंनेकहा,-"निहालसिंह! मैं तुम्हारी बिनती करता हूं, कृपाकर तुम इस समय मेरे हृदय की मेगज़ीन में आग न लगाओ।"

यह सुनकर निहालसिंह खूब ज़ोर से हंसपढ़े और कहने लगे,'अस्तु, चलो! कल रात को मैंने तुम्हारा सारा हाल हमीदा और कुलीदा से कहा था, जिसे सुनकर दोनों बहिनें बहुत ही प्रसन्न हुई और मुझे आशा है कि तुम्हें देखकर, जैसी कि उनकी इच्छा है, दोनो बहुत ही खुश होगी और कुलीदा तुम्हें अपना हृदय समर्पण करेगी।"

यह सुन कर मैं बहुतही प्रसन्न हुआ और निहालसिंह के साथ उनके डेरे पर पहुंचा। वहां पहुंचने पर उनदोनों बहिनों ने उठकर मेरी अगवानी की और बड़े आदर से मुझे एक बढ़ियां गलीचे पर ला बैठाया। उस समय निहालसिंह किसी दूसरे कमरे में चले गए थे, इसलिये कि जिसमें मुझे कुसीदा के साथ बात चीत करने का अवसर मिले।

मैं उन दोनों बहिनों को देखकर बहुत ही चकित हुआ! यदि उनदोनो के गालों के तिल का वृत्तात मैंने निहालसिंह से न सुना होता तो मैं यह कभी न जान सकता कि इन दोनो बहिनों की सूरत शकल या रूपरंग में क्या अन्तर है! किन्तु उस तिल के रहस्य के जानने के कारण मैंने मन ही मन यह बात जान ली कि इन दोनो में कौन हमीदा है और कौनसी कुलीदा!

निदान, फिर तो हमीदा मुझसे कुछ इधर उधर की दो चार बातें कर के यह कह कर उठ गई कि,-'मैं आपके लिये शर्बत लाती हूं;' और मैं कुसीदा के साथ अकेला रह गया। उस समय कुसीदा यद्यपि मेरे सामने थी, पर वह लज्जावन्ती लता के सामन बिलकुल सकुची हुई थी और हमीदा के जाने पर मेरा भी शरीर कुछ कांपने लग गया था। सो उसी अवस्था में-उस कांपते हुए हाथ से ही मैंने कुसीदा का हाथ थाम्ह लिया और उसकी अंगुली में एक बहुमूल्य हीरे की अंगूठी पहिना दी। उस अंगूठी को देख कर वह ज़रा सा मुस्कुराई और अपने गले में से एक वैसी ही 'याकूतीतख्ती' उतार कर,