पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३७९

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उत्पत्ति प्रकरण।

ही जब तक भोगों में प्रीति है तब तक अविद्या वृद्धि है और जब भोगों में स्नेह क्षीण होता है तब नष्ट हो जाती है। रागरूपी अविद्या तृष्णा विना नहीं रहती और भोगरूप प्रकाश विजली की नाई चमत्कार करती है। इनके आश्रय में जो कार्य करो तो नहीं होता। क्षणभंगुररूप हैं। जैसे विजली मेघ के आश्रय है तैसे ही अविद्या मूखों के आश्रय रहती है और तृष्णा देनेवाली है। भोग पदार्थ बड़े यत्न से प्राप्त होते हैं और जब प्राप्त हुए तब अनर्थ उत्पन्न करते हैं। जो भोगों के निमित्त यत्न करते हैं उनको धिक्कार है, क्योंकि भोग बड़े यत्न से प्राप्त होते हैं और फिर स्थिर नहीं रहते, बल्कि अनर्थ उत्पन्न करते हैं। उनकी तृष्णा करके जो भटकते हैं वे महामूर्ख हैं। हे रामजी! ज्यों ज्यों इनका स्मरण होता है त्यों त्यों अनर्थ होते हैं और ज्यों ज्यों इनका विस्मरण होता है त्यों त्यों सुख होता है। इस कारण अत्यन्त सुख का निमित्त इनका विस्मरण है और स्मरण दुःख का निमित्त है। जैसे किसी को क्रूर स्वम आता है तो उसके स्मरण से कष्टवान होता है और जैसे और किसी उपद्रव प्राप्त होने की स्मृति में अनर्थ जानता है तेसे ही विद्या जगत् के स्मरण में अनर्थ कष्ट होता है। अविद्या एक मुहूर्त में त्रिलोकी रचि लेती है और एकक्षण में पास कर लेती है। हे रामजी! स्त्री के वियोगी और रोगी पुरुष को रात्रि क्षण की नाई व्यतीत होती है और जो बहुत सुखी होता है उसको रात्रि क्षण की नाई व्यतीत हो जाती है। काल भी अविद्या प्रमाद से विपर्ययरूप हो जाता है। हे रामजी! ऐसा कोई पदार्थ नहीं जो अविद्या से विपर्यय न हो। शुद्ध, निर्विकार, निराकार, अद्वैत तत्त्व में कर्तृत्व भोक्तृत्व का स्पन्द फुरता है। हे रामजी! यह सब जगत्जाल तुमको भविद्या से भासता है। जैसे दीपक का प्रकाश चक्षु इन्द्रियों को रूप दिखाता है तैसे ही अविद्या जिन पदार्थों को दिखाती है वह सव असत्यरूप हैं जैसे नाना प्रकार की सृष्टि मनोराज में है और जैसे स्वमसृष्टि भासती है और उनमें अनेक शाखासंयुक्त वृक्ष भासते हैं वे सब असत्यरूप हैं तैसे ही यह जगत् असत्यरूप है जैसे मृगतृष्णा की नदी बड़े आडम्बर सहित भासती है तैसे ही यह जगत् भी है। जैसे मृगतृष्णा