पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५०

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योगवाशिष्ठ।

अपने देह का अभिमान और भोग की इच्छा अपने ही नाश के निमित्त है। हे मुनीश्वर! मैं तो इस शरीर को भङ्गीकार नहीं करता। इस शरीर का अभिमान परम दुःख देनेवाला है जिसको देह का अभिमान नहीं रहा उसको भोग की इच्छा भी न रहेगी। इससे मैं निराश हूँ और मुझे परमपद की इच्छा है जिसके पाने से फिर संसारसमुद्र की प्राप्ति न हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्यप्रकरणे देहनैराश्य
वर्णनन्नाम त्रयोदशस्सर्गः॥१३॥

रामजी बोले, हे मुनीश्वर! इस जीव को संसारसमुद्र में जन्म पाकर प्रथम बाल अवस्था प्राप्त होती है वह भी परम दुःख का मूल है। उससे वह परम दीन हो जाता है और इतने अवगुण इसमें भा प्रवेश करते हैं अर्थात् अशक्तता, मूर्खता, इच्छा, चपलता, दीनता, दुःख, संताप इतने विकार इसको प्राप्त होते हैं। यह बाल्यावस्था महाविकारवान् है। बालक पदार्थ की ओर धावता है और एक वस्तु का ग्रहणकर दूसरी को चाहता है स्थिर नहीं रहता, फिर और में लग जाता है। जैसे वानर स्थिर नहीं बैठता और जो किसी पर क्रोध करता है तो भीतर से जलता है। वह बड़ीबड़ी इच्छाकरता है, पर उसकी प्राप्ति नहीं होती, सदा तृष्णा में रहता है और क्षण में भयभीत हो जाता है, शान्ति प्राप्त नहीं होती।जैसे कदली वन का हाथी जंजीर मे बँधा हुआ दीन हो जाता है वैसे ही यह चैतन्य पुरुष बालक अवस्था से दीन हो जाता है। वह जो कुछ इच्छा करता है सो विचार बिना है, उससे दुःख पाता है। यह मूढ़ गूंगी अवस्था है उससे कुछ सिद्धि नहीं होती और जो किसी पदार्थ की प्राप्ति होती है तो उसमें क्षणमात्र मुखी रहता है फिर तपने लगता है। जैसे तपती पृथ्वी पर जल डालिये तो एक क्षण शीतल होती है फिर उसी प्रकार से तपती है वैसे ही वह भी तपता रहता है। जैसे गत्रि के अन्त में सूर्य उदय होता है उसमे उलूकादि कष्टवान होते हैं वैसे ही इस जीव को स्वरूप के ज्ञान से बाल्यावस्था में कष्ट होता है। हे मुनीश्वर! जो बालक अवस्था की संगति करता है वह भी मूर्ख है, क्योंकि वह विवेकरहित भवस्था है और सदा अपवित्र है और सदा पदार्थ की ओर धावती है।