पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५६७

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उपशम प्रकरण।


वशिष्ठजी बोले, हे सुन्दरमूर्ते, रामजी! यह सुन्दर सिद्धान्त जो उपशम प्रकरण है उसे सुनो, तुम्हारे कल्याण के निमित्त मैं कहता हूँ। यह संसार महादीर्घ रूप है और जैसे हृदयम्भ के आश्रय गृह होता है तैसे ही राजसी जीवों का पाश्रय संसार मायारूप है। तुम सरीखे जो सात्विक में स्थित है वे शूरमे हैं, जो वैराग, विवेक आदिक गुणों से सम्पन्न हैं वे लीला करके यत्न बिना ही संसार माया को त्याग देते हैं और जो बुद्धिमान सात्त्विक जागे हुए हैं और जो राजस और सात्त्विक हैं वे भी उत्तम पुरुष हैं। वे पुरुष जगत् के पूर्व अपूर्व को विचारते हैं। जो सन्तजन और सदशाबों का सङ्ग करता है उसके आचरणपूर्वक वे विचरते हैं और उससे ईश्वर परमात्मा के देखने की उन्हें बुद्धि उपजती है और दीपकवत् ज्ञान-प्रकाश उपजता है। हे रामजी! जब तक मनुष्य अपने विचार से अपना स्वरूप नहीं पहिचानता तब तक उसे ज्ञान प्राप्त नहीं होता। जो उत्तम कुल, निष्पाप, सात्त्विक-राजसी जीव हैं उन्हीं को विचार उपजता है और उस विचार से वे अपने आपसे आपको पाते हैं। वे दीर्घदर्शी संसार के जो नाना प्रकार के आरम्भ हैं उनको विचारते हैं और विचार दारा आत्मपद पाते हैं और परमानन्द सुख में प्राप्त होते हैं। इससे तुम इसी को विचारो कि सत्य क्या है और असत्य क्या है? ऐसे विचार से असत्य का त्याग करो और सत्य का आश्रय करो। जो पदार्थ आदि में न हो और अन्त में भी न रहे उसे मध्य में भी प्रसत्य जानिये। जो भादि, अन्त एकरस है उसको सत्य जानिये और जो आदि अन्त में नाशरूप है उसमें जिसको प्रीति है और उसके राग से जो रञ्जित है वह मूद पशु है, उसको विवेक का रङ्ग नहीं लगता। मन ही उपजता है और मनही बढ़ता है, सम्यक् बान के उदय हुए मन निर्वाण हो जाता है। मनरूपी संसार है और आत्मसत्ता ज्यों की त्यों है। रामजी ने पूछा हे ब्रह्मन्! जो कुछ पाप कहते हैं वह मैंने जाना कि यह संसार मन रूप है और जरा मरण आदिक विकार का पात्र भी मन ही है। उसके तरने का उपाय निश्चय करके कहो। हम सब रघुवंशियों के कुल के अज्ञानरूपी तम को हृदय से दूर करने को आप ज्ञान के सूर्य हैं। वशिष्ठजी