पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७

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श्रीपरमात्मने नमः।

भूमिका

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उस ईश्वर सच्चिदानन्दघन परमात्मा को धन्यवाद है कि जिसने संसार को उत्पन्न करके अपने प्रकार के लिये वेदान्त भादि विधाएँ बनाई, जिनमें अनेक प्रकार के शान और मत प्रकट किये हैं और जो भनेक प्रकार की वार्तायें संयुक्त हैं। कोई तो कर्म की प्रधानता मानते हैं, कोई खान को श्रेष्ठ जानते हैं और कोई कहते हैं कि उपासना ही मुक्ति का हेतु है, परन्तु इस पुस्तक में कर्म और बान दोनों की प्रधानता ली गई है। श्रीभगस्त्यजी महाराज ने श्रीमुख से वर्णन किया है कि न केवल कर्म ही मोक्ष का कारण है और न केवल ज्ञान ही से मोक्ष होता है बल्कि दोनों मिलकर ही मोक्ष की सिद्धि कर सकते हैं, क्योंकि अन्तःकरण निर्मल हुए विना केवल ज्ञान से ही मुक्ति नहीं होती। कर्म करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है फिर ज्ञान उत्पन्न होता है तब मुक्ति होती है। जैसे पक्षी आकाश में दोनों पंखों से उड़ता है वैसे ही मोबसाधन के लिए कर्म भोर बान दोनों ही आवश्यक हैं। इस पुस्तक में विशेष करके ज्ञानवा विषयक श्रीपरमात्मारूप दशरथकुमार आनन्दकन्द श्रीरामचन्द्र और जगद्गुरु वशिष्ठजी का संवाद है। इसके धारण करने से मुक्ति होती है। मोक्षमार्ग के दिखाने को यह पुस्तक दीपकरूप है और बान और योग की तो स्वरूप ही है। इसके प्रतिवाक्य और प्रतिपद से बोध होकर अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। कलियुग के जीवों के उद्धार के निमित्त आदिकवि विदच्छिरोमणि वाल्मीकिजी ने इसको संस्कृतपद्य में निर्माण किया और इसके द्वारा संसारसागर के तरने के निमित्त अत्मज्ञानरूप परमात्मा को लखाया, ये बातें इस पुस्तक के पढ़ने-पढ़ाने से विदित होती हैं।