पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७३५

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उपशम प्रकरण।

स्वरूप में संसक्त है और जो ब्रह्मारूप होकर विराजता है वह वन्दना करन योग्य है जो लीला से स्त्री को अर्धाङ्ग रखता है, उसके प्रेमरूपी बन्धन से बँधा है, विभूति लगाता है सदा स्वरूप में संसक्त है और शंकर वपु धारकर स्थित है वह वन्दना करने योग्य है। इनसे आदि लेकर सिद्ध, देवता, विद्याधर लोकपाल जिनकी स्वरूप में संसक्ति है वे सब मुक्तस्वरूप हैं और वन्दना करने योग्य हैं और जो देहादिकों में संसक्त हैं वे बन्ध हैं और जन्म, जरा और मृत्यु पाते हैं और कष्टवान् होते हैं। हे रामजी! जिनको शरीर में अभिमान है वे यदि बाहर से उदार भी दृष्टि आते हैं परन्तु जब भोगों को देखते हैं तब इस प्रकार गिरते हैं जैसे मांस को देखकर आकाश से चील पखेरू गिरते हैं तो वे वृथा यत्न करते हैं। हे रामजी! जो संसक्त जीव हैं वे बाँधे हुए हैं, कोई देवतारूप धार स्वर्ग में रहते और कोई मनुष्यलोक में रहते हैं, बहुत से सर्प आदिक होके पाताल में रहते हैं और तीनों लोकों में भटकते फिरते हैं, जैसे गूलर में मच्छर रहते हैं तैसे ही ब्रह्माण्ड में संमक्त जीव रहते और मिट जाते हैं। कालरूपी बालक का जीवरूपी गेंद है, वह उसे कभी नीचे को उछालता है और कभी ऊपर को उछालता है। हे रामजी! जो कुछ जगत् है वह सब असत्यरूप है। मनरूपी चितेरे ने संगरूपी रङ्ग से शून्य आकाश में जो देहादिक जगत् लिखा है वह सब असत्यरूप है जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजते और मिट जाते हैं तैसे ही जीव ब्रह्माण्ड में उपजते रहते हैं। जिसका मन देहादिक संसक्त है वह तृष्णारूपी अग्नि से तृणों की नाई जलता है। हे रामजी! जो संसक्त पुरुष है उसके शरीर पाने की कुछ संख्या नहीं। मेरु के शिखर से लेकर चरणों पर्यन्त गंगा का प्रवाह चले तो उसके कण के चाहे गिने जा सकें परन्तु संसक्त जीव के शरीर की संख्या नहीं हो सकती जो कुछ आपदा है वह उनको प्राप्त होती है। जैसे समुद्र में सब नदियाँ प्राप्त होती हैं तैसे ही सब आपदा उसको प्राप्त होती हैं। हे रामजी! जो देहाभिमानी सदा विषयों का सेवन करते हैं वे रौरव कालसत्र आदिक नरकों में जलेंगे और जो कुछ दुःख के स्थान हैं वे सब उनको प्राप्त होंगे। जो असंग संगती चित्त हैं उन पुरुषों को सब विभूति प्राप्त होती