पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९५

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. उपशम प्रकरण। ७८७, चाहता था, और जब सुख पास होता था तब तुझको भी साथ ले माता या सुख से तेरी उत्पत्ति होती है, सुख की लालसा में तो में अनेक जन्म पाता रहा, पर जब सुख भावे तब तुमको भी साथ ले भावे । तुझको देखकर मुझको भात्मपद की इच्छा उपजी घोर तेरे प्रसाद से मैं परम शीतल पद को प्राप्त हुआ हूँ। हे दुःख ! तू तो दुःख था परन्तु मुझको मात्मपद प्राप्त किया इससे तेरा कल्याण हो।तू अब जा। हे मित्र ! संसार में जीना भसार है, जिसका संयोग होता है उसका वियोग भी होता है। तूने मेरे साथ बड़ा उपकार किया कि अपना नाश किया और मुझको सुख प्राप्त किया क्योंकि जब तू मुझको प्राप्त न था तो मैं भात्मपद के निमित्त कब यत्न करता था। तूंने अपना नाश करना माना परन्तु मुझको सुख प्राप्त किया। हे मित्र ! तू बांधवों की नाई चिरकाल पर्यन्त मेरे साथ रहा और कदाचित् मुझसे दूर न हुमा मैंने तेरा नाश नहीं किया पर तूने अपना नाश भाप ही किया है। तू मुझको जव प्राप्त हुमा था तब मुझको विवेक उत्पन्न हुभा, उस विवेक ने तेरा नाश किया है इससे तुझको मेरा नमस्कार है। भोर हे माता १ तृष्णा | तुझको भी नमस्कार है। तू सदा मेरे साथ रही है और कदाचित त्याग नहीं किया। जैसे अपने बालक का त्याग माता नहीं करती तेसे ही तूने मेरा त्याग नहीं किया। अब तू जा।हे कामदेव । तुझने भापही विपर्यय होकर अपना नाश किया। जबतू बहिर्मुख था तब जीता था और जब अन्तर्मुख हुधा तब तू मिट गया। तुझको नमस्कार है। हे सुकृतो! तुमको नमस्कार है। तुमने भी बड़ा उपकार किया कि नरकों से निकालकर स्वगों में डाला, परन्तु अन्त में सबका वियोग होना है इससे तुम भी जायो। हे दुष्कृतो ! तुम मी जागो । विकर्मरूपी तुम्हारा क्षेत्र है और युवा अवस्था बीज है उससे दुःख फल होता है तुम्हारे साथ भी संयोग हुआ था इससे तुमको भी नमस्कार है, तुम भी जाओ। हे मोह ! तुमको भी नमस्कार है, तुझसे चिरकाल मैं बंधा था भौर नाना प्रकार के स्थानों को प्राप्त होता था भोर त भय दिखाता था उससे मैं भय पाता था। इससे तुझको १ बलिभिमुंबमाकान्त पलितरङ्गित शिरः गात्राणि शिपिलायन्तेतुष्णकातरुणा०ते ॥ १॥