पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/९

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श्रीपरमात्मने नमः
श्रीयोगवाशिष्ठ
प्रथम भाग
वैराग्य प्रकरण प्रारम्भ।


उस सचित्-आनन्दरूप आत्मा को नमस्कार है जिससे सब भासते है और जिसमें सब लीन और स्थिर होते हैं एवम् जिससे ज्ञाता, ज्ञान, बेय, दृष्टा, दर्शन, दृश्य और कर्ता, करण, कर्म सिद्ध होते हैं, जिस आनन्द के समुद्र के कण से सम्पूर्ण विश्व आनन्दवान है और जिस आनन्द से सब जीव जीते हैं। अगस्त्यजी के शिष्य सुतीक्ष्ण के मन में एक संशय उत्पन्न हुआ तब वह उसके निवृत्त करने के अर्थ अगस्त्य मुनि के आश्रम में जाकर विधिसंयुक्त प्रणाम करके स्थित हुआ और नम्रतापूर्वक प्रश्न किया कि हे भगवन्! आप सर्वतत्त्वज्ञ और सर्वशास्त्रों के ज्ञाता हो एक संशय मुझको है सो कृपा करके निवृत्त करो। मोक्ष का कारण कर्म है या ज्ञान? अथवा दोनों? इतना सुन अगस्त्यजी बोले कि हे ब्रह्मण्य! केवल कर्म मोक्ष का कारण नहीं और केवल ज्ञान से भी मोक्ष पास नहीं होता; मोक्ष की प्राप्ति दोनों से ही होती है। कर्म करने से अन्तः-करण शुद्ध होता है मोक्ष नहीं होता और आंत कारण की शुद्धि के बिना केवल ज्ञान से भी मुक्ति नहीं होती; इससे दोनों से मोक्ष की सिद्धि होती है। कर्म करने से अन्तःकरण शुद्ध होता है, फिर ज्ञान उपजता है और तब मोक्ष होता है। जैसे दोनों पंखों से पक्षी आकाश मार्ग में सुख से उड़ता है वैसे ही कर्म और ज्ञान दोनों से मोक्ष की प्राप्ति होती है। हे ब्रह्मण्य! इसी आशय के अनुसार एक पुरातन इतिहास है वह तुम सुनो। अग्निवेष का पुत्र कारण नाम ब्राह्मण गुरु के निकट जा षट् अंगों सहित चारों वेद अध्ययन करके गृह में आया और कर्म से रहित होकर तूष्णीं हो स्थित रहा अर्थात् संशययुक्र हो कर्मों से रहित हुआ। जब उसके