पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१४४

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स्मृतिविचारयौगवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. १६०२५) पवन भी अन्यभावको प्राप्त हो जाते हैं, परंतु आत्मतत्व कदाचित् अन्यभावको प्राप्त नहीं होता, प्रकाशरूप हैं, अरु एक नित्य है, निर्वि- कार ईश्वर है, भाव अभाव विकारको कदाचित् नहीं प्राप्त होता है । राम उवाच ॥ हे भगवन् ! विद्यमान एक तत्त्व है, सो ब्रह्म सदा सर्वदा निर्म- लरूप है, तिस संवित् ब्रह्मविषे यह अविद्या कहाँते आई है १ ॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! यह सर्व ब्रह्म है, आगे भी ब्रह्म था, अरु पाछेभी ब्रह्म होवैगा, तिस निर्विकार आदि अंत मध्यते रहित ब्रह्मविषे अविद्या कोई नहीं, यह निश्चय है, जिसको वाच्य वाचक कर्मकार उपदेशनि- मित्त ब्रह्म कहता है, तिसविषे अविया कहाँ है । हे रामजी ! अहं त्व आदिक जगद्धम अग्नि वायु आदिक सर्व ब्रह्मसत्ता हैं, अपर अविद्या रंचकमात्र भी नहीं, जिसका नामही अविद्या है, सो भ्रममात्र असत् जान, जो विद्यमान नहीं है, तिसका नाम क्या कहिये। राम उवाच।। हे भगवन् ! उपशम प्रकरणविषेतुमने क्यों कहा है कि अविद्या है, अब इसप्रकार कैसे कहते हौ, कि विद्यमान नहीं है १॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! एते कालपर्यंत तू अबोध था, तिसनिमित्त मैं कल्पकार तुझको युक्ति कही थी, सो तेरे जगावनेनिमित्त कही थी, अरु अब तू प्रबुद्ध हुआ है, तब मैं कहा अविद्या अविद्यमान है । हे रामजी ! अविद्या अरु जीव जगत् आदिकका क्रम अप्रबोधको जगावनेनिमित्त वेदूवादीने वर्णन किया है, जबलग अप्रबोध मन होता है, तबलग इसको अविद्याभ्रम है, सो युक्तिविना अनेक उपायकर भी बोधवान् कदाचित नहीं होता, अरु जब बोधवान होता है, तब सिद्धांत उपदे- शसों युक्तिविना भी पाय लेता है, अरु अबोध मन युक्तिविना पाय नहीं सकता ॥ हे रामजी ! जो कार्य युक्तिकार सिद्ध होता है, अपर यत्रकार साध्य नहीं जाता, जैसे अंधकार युक्तिरूपी दीपककार दूर होता है, अपर बल यत्नकारि निवृत्त नहीं होता, तैसे युक्तिविना अपर यत्रकरि अज्ञाननिद्रा निवृत्त नहीं होती, जो अप्रबोधको सवै ब्रह्म सिद्धांतका उपदेश करिये, तब वह व्यर्थ होता है, जैसे कई दुःखी अपना दुःख स्थाणुके आगे जाय कहै तब उसका कहा वह सुनता नहीं,