पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३०८

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संतलक्षणमाहात्म्यवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११८९) है, अरु दुःखी होता है, तैसे दृष्यरूपी मरुस्थलविषे पदार्थरूपी जलाभास है, तिसको देखकर अज्ञानरूपी मृग दौड़ते हैं, अरु दुःख पाते हैं, जब ज्ञानरूपी वर्षाकार आत्मारूपी जल चढा तब चित्तरूपी मृग कहां दौडै ?जब ज्ञानरूपी वर्षा होती है, अरु अनुभवरूपी जल चढता है, तब चित्तरूपी मृग तिसविषे यत्नरूपी जो ऊरणा था, सो नष्ट हो जाता है । हे रामजी ! अहंकार अविचारते सिद्ध है, विचारते क्षीण हो जाता है, जैसे बर्फकी पुतली सूर्यको किरणोंकारि क्षीण होती हैं, जब अधिक तेज होता है, तब जलरूप हो जाती है, बर्फकी संज्ञा नहीं रहती तैसे अहंकाररूपी बर्फ विचाररूपी किरणोंकार क्षीण हो जाता है, जब दृढ़ विचार होता है, तब अहंकारसंज्ञाहू नष्ट हो जाती हैं। केवल आत्मा हो रहता है ॥ राम उवाच ॥ हे सर्वतत्त्वज्ञ भगवन् ! जिसका अहंकार नष्ट हुआ है, तिसका लक्षण क्या है, सो कहौ । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । अज्ञानरूपी जो या संसार है, तिसविपे पदार्थको भावनाकार नहीं गिरता, अरु क्षमा शांति आदिक शुभ गुण तिसको स्वाभाविक आय प्राप्त होते हैं, जैसे समुद्रविषे नदियां स्वाभाविक आय प्राप्त होती हैं, अरु क्रोध भी तिसका नष्ट हो जाता है, देखनेमात्र भासता है, तो भी अर्थीकार नहीं होता, जो विषमताकारकै भिन्न भावना अंतरते नहीं फुरती, केवल सत्तासमानविषे स्थित होता है, जैसे शरत्कालका मेघ गर्जता है, अरु वर्षाते रहित होता है, तैसे इंद्रियोंकी चेष्टा अभिमानते रहित होकर करता है, जैसे वर्षा ऋतुके जानेकार कुहिड नहीं रहती, तैसे अभिमान चेष्टा तिसकी नष्ट हो जाती है, अरु लोभभी तिसके मनते जाता रहता है, जैसे वनको अग्नि लगती हैं, अरु पक्षी तिस वनको त्याग जाते हैं, तैसे लोभरूपी मृग तिसको त्याग जाते हैं, तिसके मनविषे कामना कोऊ नहीं रहती, जैसे दिनविषे उलूक पिशाच नहीं विचरते, जहां ज्ञानरूपी सूर्य उदय होता है, तहाँ संपूर्ण कामनारूपी तम नष्ट हो जाता है, शतरूप आत्माविषे स्थित रहता है। जैसे पैदोई दो पोटको ज्येष्ठ आषाढकी धूपविषे उठावता है, अरु गरमी होती है, थकता भी है, तिसको डारिकरि बृक्षके नीचे सुखसों स्थित