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अविद्यानिराकरणवर्णन–निर्वाणप्रकरण ६.

मध्यभावको प्राप्तभईहै, स्थानभेदकरि बहुरि वही दृढ स्पंदकरि मनभावको प्राप्त भई है, अरु सात्त्विक राजस तामस तीनों उसके आकार हुए हैं, सो अविद्या त्रिगुण प्राकृत धर्मिणी होत भई है, अरु तीन गुण जो तुझको कहे हैं, सोभी एक एक गुण तीन प्रकार हुआ है, अविद्याके गुण नव प्रकारके भेदको प्राप्त भये हैं, जेता कछु तुझको दृश्य भासता है, सो अविद्याके नवगुणविषे ऋषीश्वर मुनीश्वर सिद्ध नाग विद्याधर देवता जो हैं, सो अविद्याका सात्त्विक भाग है, तिस सात्त्विकके विभागविषे नाग सात्त्विक तामस हैं, अरु विद्याधर सिद्ध देवता मुनीश्वर यह अविद्याके सात्त्विक भागविषे सात्त्विक राजस हैं, अरु हरिहरादिक सात्त्विक हैं॥ हे रामजी सात्त्विक जो प्रकृत भागहै, तिसकरि तत्त्वज्ञ जो हुए हैं, सो मोहको नहीं प्राप्त होवैं, मुक्तिरूप होतेहैं, सो हरिहरादिक शुद्ध सात्त्विक हैं, सदा मुक्तरूप होकरि जगत‍्विषे स्थित हैं, जबलग जगत‍्विषे हैं, तबलग जीवन्मुक्त हैं, जब विदेहमुक्त हुये तब परमेश्वरको प्राप्त होते हैं॥ हे रामजी! एक अविद्याके दोरूप हैं, एक अविद्यारूप बहुरि वही विद्यारूप होती है, जैसे बीज फलको प्राप्त होताहै, अरु फल बीजभावको प्राप्त होता है, जैसे जलविषे बद‍्बुदा उठताहै, तैसे अविद्याते विद्या उपजती है अरु विद्याकरि अविद्या लीन होती है, जैसे काष्ठते अग्नि उपजिकार काष्ठको दग्ध करती है, तैसे विद्या अविद्याते उपजिकार अविद्याको नाश करती है, अरु वास्तवते सब चिदाकाश है, जैसे जलविषे तरंग कलनामात्र हैं, तैसे विद्या अविद्या भावनामात्र इसको त्यागिकार शेष आत्मसत्तारहती है; अविद्या अरु विद्या आपसमें प्रतियोगीहैं, जैसे तम अरु प्रकाश होताहै, ताते इन दोनोंको त्यागिकरि आत्मसत्ताविषे स्थित होहु, विद्या अरु अविद्या कल्पनामात्र हैं, विद्याके अभावका नाम अविद्या है, अरु अविद्याके अभावका नाम विद्या है, यह प्रतियोगी कल्पना मिथ्या उठी है, जब विद्या उपजती है, तब अविद्याका भास करती है, पाछे आप भी लीन हो जाती है, जैसे काष्ठते उपजी अग्नि काष्ठको जलायकरि आप भी शांत हो जाती है, तैसे अविद्याको नाश करिकै विद्या आप भी लीन हो जाती है, तिसते शेष रहता है, सो