पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४०६

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कर्मवीजदाहोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१२८७) शताधिकोनत्रिंशत्तमः सर्गः १२९. मादीही होती है। चोड़ा आदि सर्व आम कर्मबीजदाहोपदेशवर्णनम् ।। वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! आत्मा अद्वैत है, जिसविषे एक दो कहना नहीं, अपने आप स्वभावविषे स्थित है, अंतःकरण चतुष्य अरु बाह्य पदार्थ सर्व चेतनमात्र हैं, इतर कछु नहीं, रूप इंद्रियाँ अरु मनका ऊरणा देश काल सर्व आत्मारूपही है, जैसे बालक माटीकी सैन्य बनाता है। अरु हस्ती घोड़े राजा प्रजा नाम कल्पता है, सो सर्व माटीही है, इतर कछु नहीं तैसे अहं मम आदिक भी सर्व आत्मरूप हैं, इतर कछु नहीं, जैसे माटीविषे हस्ती घोड़ा आदिक नाम कल्पता है, तैसे आत्माविषे जगत् जीव कल्पता है, आत्माते इतर कछु नहीं, इस अहंकारका त्याग करु, अत्मपदते इतर कछु फुरै नहीं ॥ हे रामजी ! रूप अवलोक नमस्कार यह सब शिवरूपी मृत्तिकाके नाम हैं, मान मेय प्रमाण आदिक यह सब वहीरूप हुए तो किसकरि किसको संचित कहिये, यह अहं मम आदिक भी चिदाकाशते इतर कुछ वस्तु नहीं, इनको ऐसे जानकार अफ़रशिलावत् निःसंग होय रहहु ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुमने कहा कि अहं मम ऊरणका त्याग करु, यह मिथ्या है, अहे मम असत् है, ज्ञानी ऐसी भावना करते हैं, इनकी सत्ता कुछ नहीं, अरु असंग हो, सो असंग निष्कर्मकार होता है, अथवा सकर्मकार होताहै। यह कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी। यह तुही कछु कि, कर्म क्या है, निष्कर्म क्या, अरु इनका कारण कौन है, अरु इनका नाश कैसे होवे अरु नाश होनेकार सिद्धि क्या होवैगी १ जो तू जानता है तौ कह ॥ राम उवाच॥ हे भगवन् ! जैसे तुमने श्रवण किया हैं, अरुसमझा है, सो मैं कहता हौं, जो वस्तु नाश करनी होवै, तिसको निश्चयकार मूलते नाश करिये, तबहीं तिसका नाश होता है, शाखा पत्र काटेते उसका नाश नहीं होता ताते इनका क्रम सुनो, यह संसाररूपी वनविषे देहरूपी वृक्ष है, तिसका बीज कर्म है, अरु पाणि पाद आदिक उसके पत्र हैं, अरु