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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१०

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8/योगिराज श्रीकृष्ण
 


को ईसाई पादरी अपनाने के लिए तैयार थे और अन्ततः जो उनका धर्म-परिवर्तन करने के इरादे रखते थे, उन्हें इन मिशनरियों के चंगुल से बचाकर फीरोजपुर तथा आगरा के आर्य अनाथालयो में भेजा। 1905 में कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) मे भयंकर भूकम्प आया। उस समय भी लालाजी सेवा-कार्य में जुट गये और डी०ए०वी० कॉलेज, लाहौर के छात्रों के साथ भूकम्प पीड़ितों को राहत प्रदान की। 1907-08 में उड़ीसा, मध्यप्रदेश तथा संयुक्त प्रान्त (वर्तमान उतर प्रदेश) में भी भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा और लालाजी को पीड़ितों की सहायता के लिए आगे आना पड़ा।


पुन: राजनैतिक आन्दोलन में

1907 के सूरत के प्रसिद्ध कांग्रेस अधिवेशन में लाला लाजपतराय ने अपने सहयोगियो के द्वारा राजनीति में गरम दल की विचारधारा का सूत्रपात कर दिया था और जनता को यह विश्वास दिलाने में सफल हो गये थे कि केवल प्रस्ताव पास करने और गिड़गिड़ाने से स्वतंत्रता मिलने वाली नहीं है। हम यह देख चुके हैं कि जनभावना को देखते हुए अंग्रेजों को उनके देश-निर्वासन को रद्द करना पड़ा था। वे स्वदेश आये और पुन: स्वाधीनता के संघर्ष में जुट गये। प्रथम विश्वयुद्ध (1914-18) के दौरान वे एक प्रतिनिधि मण्डल के सदस्य के रूप में पुन: इंग्लैंड गये और देश की आजादी के लिए प्रबल जनमत जागृत किया। वहाँ से वे जापान होते हुए अमेरिका चले गये और स्वाधीनता-प्रेमी अमेरिकावासियों के समक्ष भारत की स्वाधीनता का पक्ष प्रबलता से प्रस्तुत किया। यहाँ उन्होने इण्डियन होम रूल लीग की स्थापना की तथा कुछ ग्रन्थ भी लिखे। 20 फरवरी, 1920 को जब वे स्वदेश लौटे तो अमृतसर में जलियाँवाला बाग काण्ड हो चुका था और सारा राष्ट्र असन्तोष तथा क्षोभ की ज्वाला मे जल रहा था। इसी बीच महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन आरम्भ किया तो लालाजी पूर्ण तत्परता के साथ इस संघर्ष में जुट गये। 1920 में ही वे कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन के अध्यक्ष बने। उन दिनों सरकारी शिक्षण संस्थाओं के बहिष्कार, विदेशी वस्त्रों के त्याग, अदालतो का बहिष्कार, शराब के विरुद्ध आन्दोलन, चरखा और खादी का प्रचार जैसे कार्यक्रमों को कांग्रेस ने अपने हाथ में ले रखा था, जिसके कारण जनता में एक नई चेतना का प्रादुर्भाव हो चला था। इसी समय लालाजी को कारावास का दण्ड मिला, किन्तु खराब स्वास्थ्य के कारण वे जल्दी ही रिहा कर दिये गये।

1924 में लालाजी कांग्रेस के अन्तर्गत ही बनी स्वराज्य पार्टी में शामिल हो गये और केन्द्रीय धारा सभा (सेट्रल असेम्बली) के सदस्य चुन लिए गये। जब उनका पं० मोतीलाल नेहरू से कतिपय राजनैतिक प्रश्नों पर मतभेद हो गया तो उन्होंने नेशनलिस्ट पार्टी का गठन किया और पुन: असेम्बली में पहुँच गये। अन्य विचारशील नेताओं की भाँति लालाजी भी कांग्रेस में दिन-प्रतिदिन बढ़ने वाली मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति से अप्रसन्नता अनुभव करते थे, इसलिए स्वामी श्रद्धानन्द तथा पं० मदनमोहन मालवीय के सहयोग से उन्होंने हिन्दू महासभा के कार्य को आगे बढ़ाया। 1925 मे उन्हें हिन्दू महासभा के कलकत्ता अधिवेशन का अध्यक्ष भी बनाया गया। ध्यातव्य है कि उन दिनों हिन्दू महासभा का कोई स्पट राजनैतिक कार्यक्रम नहीं था और