पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१२३

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124/ योगिराज श्रीकृष्ण
 


लिए तो ऐसी मृत्यु सौभाग्य है। इसी प्रकार उसने अपनी बहन सुभद्रा और दूसरे सैनिकों को भी संतोष देकर शांत किया।

अर्जुन को यह बतलाया गया कि सिंधु के राजा जयद्रथ ने अभिमन्यु का सिर काटा है। अर्जुन ने उसी समय यह प्रतिज्ञा की कि कल सायंकाल से पहले मै जयद्रथ को मारकर अपने पुत्र का बदला लूँगा, नहीं तो स्वयं जीते जी आग में जलकर भस्म हो जाऊँगा। कृष्ण को अर्जुन की इस प्रतिज्ञा से बड़ी चिन्ता हुई। सोचा कि अर्जुन की इस प्रतिज्ञा की खबर अभी दुर्योधन को पहुँच जाएगी और वह ऐसा प्रबंध करेगा जिससे कि जयद्रथ अर्जुन के सामने ही न आने पावे और दूर ही दूर रहे। उसके लिए यह कठिन भी नहीं होगा कि कल सायंकाल तक किसी-न-किसी प्रकार जयद्रथ को बचा सके। यदि कल सायंकाल तक जयद्रथ नहीं मारा गया तो बस अर्जुन का अंत है। उन्होंने अपने रथवान को आज्ञा दी कि कल मेरा रथ पूर्ण रीति से सुसज्जित रहे, क्योंकि अर्जुन को बचाने के लिए यदि आवश्यकता हुई तो मैं स्वयं ऐसी रीति व्यवहार में लाऊँगा जिससे जयद्रथ मार जावे और अर्जुन बचा रहे।

दूसरे दिन जब युद्ध आरम्भ हुआ तो दुर्योधन ने अपनी सेना को इस तरह से जमाया जिससे जयद्रथ परले किनारे पर खड़ा रहा और सारी तैयारी उसके बचाव के लिए की गई क्योंकि कौरवों के लिए जयद्रथ का सायंकाल तक जीवित रहना जय प्राप्त करने के समान था। पाण्डवों की सेना मे से यदि अर्जुन निकल जाता तो फिर दुर्योधन के जीतने में क्या शका थी। अगले दिन कृष्ण ने सारथी-कला के ऐसे गुण दिखाये और युद्ध के बीचोबीच व्यूह को चीरकर इस रीति से अर्जुन को जयद्रथ के सामने लाकर खड़ा किया जिससे जयद्रथ के लिए लड़ने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं रहा। ऐसा क्यो न होता जबकि अर्जुन जैसे महाबली योद्धा और कृष्ण जैसे सारथी हों। कृष्ण तो सारथी-विद्या का कौशल दिखा सकते थे परन्तु उनकी कला किस काम आती यदि अर्जुन उपस्थित वीरो से अपने आपको न बचाता, क्योंकि सारे रास्ते भयंकर युद्ध होता रहा। कौरव सेना के सब बड़े-बड़े योद्धा बारी-बारी लड़ते। कभी भिन्न-भिन्न और कभी कई लोग एकत्र होकर अर्जुन से युद्ध करते रहे, परन्तु वीर अर्जुन सबसे युद्ध करता हुआ किसी को मारता, किसी से बचता, किसी को अपनी सेना के दूसरे योद्धाओ को सौपता, अपनी जान को हथेली पर लिए बाणवर्षा, निशानेबाजी और युद्ध के कर्तव्य दिखलाता हुआ जयद्रथ के सामने जा पहुंचा और उसको युद्ध करने पर बाध्य किया। युद्ध मे उसका सिर काटकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। इस प्रकार कई दिन तक लड़ाई होती रही और दोनों दलों के प्रसिद्ध क्षत्रिय जान की बाजी लगाकर मृत्यु के मुँह में जाते रहे। द्रोण कई दिन तक बड़ी वीरता तथा होशियारी से पाण्डव सेना का नाश करते रहे, परन्तु अंत में वे इतने घायल हो गये कि उनके हाथ से शस्त्र गिर गये और धृष्टद्युम्न ने उनका सिर काट डाला। द्रोण की मृत्यु से महाभारत के युद्ध का दूसरा दृश्य समाप्त हुआ। दूसरा दृश्य क्या समाप्त हुआ मानो आधा भाग युद्ध ही समाप्त हुआ।

नोट-द्रोण की मृत्यु के संबंध में भी एक किंवदन्ती है जो वास्तव में पीछे से मिलाई हुई मालूम होती है। यह इस प्रकार है। द्रोण ने युद्ध में इस प्रकार के शस्त्र प्रयोग किये जिन्हें