पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१३३

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तैंतीसवाँ अध्याय
महाराज श्रीकृष्ण के जीवन का अन्तिम भाग

महाभारत के युद्ध के पश्चात् एक बार महाराज कृष्ण फिर हस्तिनापुर आए। यह अश्वमेध यज्ञ का अवसर था जिसकी तैयारियाँ महाभारत की लड़ाई के समाप्त होते ही आरम्भ हो गई थी। इस अवसर पर इनका आना एक ऐसी घटना से संबंध रखता है जिसकी आश्चर्यजनक कथा मे से सत्य का निकालना कठिन है। कथा इस प्रकार है कि जिस दिन महाराज कृष्ण हस्तिनापुर आये उसी दिन रानी उजरा के एक लड़का उत्पन्न हुआ जो मरा हुआ था। उत्तरा महाराज विराट की लड़की और अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु की विवाहिता स्त्री थी। अभिमन्यु की मृत्यु के समय वह गर्भवती थी और चूँकि युद्ध के समाप्त होने पर द्रौपदी के पुत्रो को अश्वत्थामा ने बदले की आग में जलाकर मार दिया था इस कारण आगे आने वाले वंश का विस्तार उत्तरा के बच्चे पर ही था। जिस समय उत्तरा के पुत्र उत्पन्न हुआ और वह मरा हुआ दिखाई दिया, तमाम महल में रोना-पीटना आरम्भ हो गया! आशाएँ मिट्टी में मिल गईं और चारों ओर रोनेपीटने की आवाज सुनाई देने लगी। संयोग से महाराज कृष्ण भी उसी समय नगर में आये और रोने-पीटने का कोलाहल सुनकर सीधे महल में गये। अभिमन्यु कृष्ण की बहिन सुभद्रा का पुत्र था अर्थात् उत्तरा कृष्ण के अपने भांजे की रानी थी। जब स्त्रियों को पता लगा कि कृष्ण आ गये तो उन्होंने उनको घेर लिया और बच्चे को उनके सामने डालकर रोने लगीं। कृष्ण ने बच्चे को देखते ही कहा कि मै इसको जिला दूँगा। अन्तत: बच्चे की ओर देखकर वे कहने लगे कि, “ए बालक, मैने अपने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला, न मैं कभी युद्ध से भागा। बस यदि मेरे इन व्यवसायो में कुछ शक्ति है तो तू जी उठे।' बच्चा हिलने लगा और धीरे-धीरे बिलकुल अच्छा हो गया। इस बालक का नाम परीक्षित था जो बाद में पाण्डवों के राज्य का स्वामी हुआ। अश्वमेध यज्ञ कुशलता से समाप्त हुआ और कृष्ण महाराज फिर अपने नगर को चले गये।

इस युद्ध के समाप्त होने पर, वह 36 वर्ष तक निर्विघ्न होकर द्वारिका में रहे, परन्तु इस समय में उनकी जाति के यादवों में गर्व, राग, द्वेष, मदिरापान इत्यादि इतना बढ़ गया, कि यादव लोग श्रीकृष्ण के अधिकार के बाहर हो गये। खुल्लमखुल्ला आपस में लड़ाइयाँ होने लगी। इन लड़ाई-झगड़ों से समस्त यादव बरबाद हो गये। यहाँ तक कि यादव राजवंश में से सिर्फ चार आदमी बाकी बचे। वे थे श्री कृष्ण, बलराम, दारुक और सात्यकि।

बलराम ने इस अपार दुख से दुखी होकर समुद्र के किनारे आकर प्राण त्याग किये और श्रीकृष्ण महाराज अपने सारथी दारुक को अर्जुन के पास भेजकर स्वयं बन की ओर चले गए