पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/१४२

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कृष्ण महाराज का शिक्षा / 143
 

दूसरे सम्बन्धियों को यथासमय दिये और जिनमें प्राचीन वेद ग्रन्थों के निष्काम कर्म दर्शन पर जोर दिया गया है, तो कुछ हानि नहीं है क्योंकि कृष्ण नाम किसी विशेष धर्म का नहीं है जिसे कृष्ण महाराज ने चलाया हो। परन्तु इसमे कोई संदेह नहीं कि निष्काम धर्म का जैसा प्रभावोत्पादक उपदेश कृष्ण महाराज के वाक्यों में मिलता है वैसा और किसी ऋषि-मुनि के उपदेश में नहीं मिलता। भगवद्‍गीता के पृथक्-पृथक् अध्याय यद्यपि भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखे हुए है परन्तु सबका सारांश एकमात्र निष्काम धर्म की शिक्षा ही है। महाभारत में भी कृष्ण महाराज के भिन्न-भिन्न वाक्यों में निष्काम धर्म सबसे प्रधान है, उनकी प्रत्येक बात का मर्माशय यही है। भिन्न-भिन्न रीतियों से भिन्न-भिन्न प्रणाली में धर्म के भिन्न-भिन्न अंगों की व्याख्या करते हुए प्राय: प्रत्येक युक्ति का अंत निष्काम धर्म की प्रधानता पर होता है। भगवद्‍गीता के प्रत्येक अक्षर में निष्काम धर्म का राग अलापा गया है। न केवल उनके वचनों में, वरच उनके कर्म और उनके व्यवहार में भी इसी शिक्षा का असर दिखाई देता है, जिससे हम यह कह सकते है कि झूठे त्याग और वैराग्य का खण्डन करते हुए निष्काम धर्म की प्रधानता को फैलाना और निष्काम दर्शन की व्याख्या करना यही कृष्ण महाराज के जीवन का उद्देश्य था और यही हमको उनके वचनों में जगह-जगह दिखाई देता है। जहाँ कहीं कभी उनको धार्मिक व्यवस्था देने की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने इसे सिद्धान्त बनाकर उसी के अनुसार अपना न्याय किया। इस शिक्षा का अनुकरण करना ही उन्होंने मनुष्य मात्र के जीवन का उद्देश्य ठहराया। इसी पर कार्य करने के लिए वह उन सब लोगों को प्रेरणा करते थे जिनका किसी-न-किसी प्रकार से उनसे संबंध रहा। मित्रो की संगति में, सबंधी व रिश्तेदारों के व्यवहारों में, अपने सेवकों तथा भक्तजनों के प्रश्नों के उत्तर में, राजसभाओं में, यज्ञादि तथा अन्यान्य धार्मिक कृत्यों के अवसर पर तथा शत्रुओं से युद्ध के समय, तात्पर्य यह कि जीवन की घटनाओं और हर बात पर उन्होंने इसी शिक्षा को अपना प्रधान लक्ष्य नियत कर लिया था। अंत में मृत्यु के समय जिस बधिक के बाण से वे घायल हुए, उसे भी इसी निष्काम धर्म का उपदेश करते हुए स्वर्ग को पधारे।

पाठको! अब हम संक्षेप से यह बतलाना चाहते है कि कृष्ण महाराज की संपूर्ण शिक्षा का सारांश हमको भगवद्‍गीता के दूसरे अध्याय तथा महाभारत के कतिपय श्लोकों में प्राप्त होता है। कृष्ण महाराज की शिक्षा के अनुसार मनुष्य-जीवन का मुख्य उद्देश्य भगवद्‍गीता के अध्याय दूसरे में वर्णित किया गया है।

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥ 64
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसोह्याशु बुद्धिः पर्य्यवतिष्ठते॥ 65

अर्थ–जो मनुष्य इन्द्रियों को वश में करके राग-द्वेष रहित हो इन्द्रियों के विषयों[१] में

 

  1. इन्द्रियों के विषय में आचरण करने से तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों से वह काम लेता है जिस काम करने के लिए प्रकृति ने उसको बनाया है, जैसे आँख से देखना, कान से सुनना, नाक से सूँघना इत्यादि।