पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/२३

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22/ योगिराज श्रीकृष्ण
 


2 से मैंने अधिक सहायता ली है, परन्तु न तो मैंने उसकी प्रणाली का अनुकरण ही किया और न उससे चुनी हुई घटनाओं पर भरोसा ही किया है। साधारणत: मैंने सब घटनाओं को विष्णु पुराण, महाभारत और श्रीमद्भागवत से पड़ताल करके लिखा है। यदि किसी जगह केवल किसी दूसरे लेखक के विश्वास पर कोई घटना का उल्लेख किया है तो फुटनोट में उन महाशय का नाम लिख दिया है। भगवद्गीता के श्लोको के भाष्य के लिए मैंने साधारणतः मिसेज एनी बेसेन्ट के भाष्य से लाभ उठाया है, परन्तु हर एक श्लोक के भाष्य को मैंने असल पुस्तक से मिलान कर लिया है और जहाँ भाष्य मे न्यूनाधिक परिवर्तन की आवश्यकता प्रतीत हुई वहाँ पर किया है।

इसके अतिरिक्त शायद इस बात की भी आवश्यकता है कि मैं कुछ शब्द अपनी भाषा व लेख के संबंध में कहूँ। मैंने कई बार यह शिकायत सुनी है कि आर्यसामाजिक उर्दू साधारणत और मेरी उर्दू विशेषत: खिचड़ी होती है। एक मुसलमान मित्र ने तो यह कहा कि हमने उर्दू को संयुक्त बना दिया है, परन्तु असल बात यह है कि आर्यसमाज की स्थिति से पहले उर्दू भाषा में हिन्दू धर्म की पुस्तके बहुत थोड़ी थी क्योंकि संस्कृत व हिन्दी जानने वाले हिन्दुओ ने कभी अपनी धार्मिक पुस्तकों को उर्दू में लिखने का उद्योग नहीं किया। यदि किया भी तो केवल उर्दू (फारसी) अक्षरों का प्रयोग किया। आर्यसमाज ने इस आवश्यकता को अनुभव किया कि पंजाब व संयुक्त प्रांत[१] की शिक्षितमंडली के लिए अपनी धर्म पुस्तको को उर्दू भाषा मे तैयार करके उर्दू अक्षरों में प्रकाशित किया जाए। मुसलमानों ने उर्दू भाषा में फारसी व अरबी के शब्दो का प्रयोग किया था, क्योंकि साधारणत: उर्दू के लेखक फारसी व अरबी से भिज्ञ थे और उन लोगों को मुसलमानों के धार्मिक विचारों को प्रकट करने के लिए फारसी व अरबी के शब्दों के प्रयोग की आवश्यकता पड़ती थी, लेकिन जब अँगरेजी सरकार ने पंजाब और संयुक्त प्रांत मे उर्दू अक्षरों को सरकारी अदालतों में प्रचलित किया और शिक्षा का प्रचार भी इन्हीं अक्षरो में प्रचलित हुआ तो इन अक्षरों के जानने वाले हिन्दुओं की आवश्यकता को पूरा करने के लिए यह आवश्यक हुआ कि उन अक्षरों में ऐसी पुस्तकें तैयार की जाएँ, जिनमें हिन्दू धर्म की शिक्षा हो। यें पुस्तकें ऐसे लोगों को बनानी पड़ीं जिन्होंने सरकारी स्कूलों में साधारण उर्दू, फारसी की शिक्षा पाई थी। जब उन्होंने अपने धर्म की छानबीन में या धार्मिक शिक्षा में संस्कृत और हिन्दी की पुस्तकों का अवलोकन किया और उन विषयों पर भाषण या व्याख्यान सुना तो उनकी जुबान पर बहुत-से हिन्दी व संस्कृत के शब्द चढ़ गये, जिसका परिणाम यह हुआ कि वह अपने भाषणो में उन्ही शब्दों का प्रयोग करने लगे। यहाँ तक कि लेख इत्यादि में भी उनके प्रयोग से न रुक सके और उनकी उर्दू एक विशेष प्रकार की उर्दू बन गई जिसमें यदि फारसी व अरबी के शब्द पाये जाते है तो साथ ही हिन्दी व संस्कृत के शब्द भी मिलते है। इसके अतिरिक्त मैं नही समझ सकता कि किसी मनुष्य को इस उर्दू पर क्या आक्षेप हो सकता है? उर्दू वास्तव में भारतवासियों की भाषा का नाम है, बल्कि किसी-किसी अवसर पर उर्दू और हिन्दुस्तानी शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। मुसलमानी राज्य में मुसलमानी साहित्य का जोर था और

  1. वर्तमान उत्तर प्रदेश