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पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/२५

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24/योगिराज श्रीकृष्ण
 


को जो बहुत कम होता है, उर्दू भाषा के लालित्य तथा उसमें अपनी योग्यता व विद्वत्ता दिखाने में खर्च करें, तो शायद हमसे कुछ भी न बन सकेगा।

तथ्य तो यह है कि भारतवर्ष की तमाम देशी भाषाओं में इस समय परिवर्तन हो रहा है। इनमें नये-नये विचारों को प्रकट किये जाने के लिए भिन्न-भिन्न भाषाओं के आश्रय की आवश्यकता है। किसी तरह भी यह नहीं हो सकता कि लोग उर्दू, फारसी की पवित्रता को स्थिर रखने के लिए उस सुगम प्रणाली को हाथ से छोड़ दें और स्वदेशी साहित्य की उन्नति को रोक दे।

इस पुस्तक को जब लिखना आरम्भ किया तो प्रथम यह विचार सामने आया था कि मुहावरे की उर्दू लिखी जाए, परन्तु फिर हमने देखा कि प्रथम तो मुहावरे की उर्दू जानने का दावा हम नहीं कर सकते और दूसरे हमें हिन्दी शब्दों को छोड़ने के लिए बहुत उद्योग करना पड़ेगा, जिसमे हमारा बहुत समय लगेगा। इसलिए हमने इस उद्योग को छोड़ दिया और जो शब्द हमारी लेखनी में आये उन्हें ही लेखबद्ध किया।

अन्त में हम कुछ शब्द अपनी पुस्तक के मूल्य के संबंध में प्रकट कर देना चाहते है, क्योंकि हमारे बहुत-से मित्रों को यह शिकायत रहती है कि हम अपनी साधारण पुस्तकों को बहुत महँगी करके बेचते है। प्रथम तो हम अपने मित्रों को यह बताना चाहते है कि हमारी सब पुस्तको का मूल्य अन्य भाषा अर्थात् बंगाली, अँगरेजी या उर्दू में छपी पुस्तकों से कम है। दूसरे यह कि हमारी अच्छी से अच्छी पुस्तक में अभी तक हमको हानि रही है। पूरी लागत भी अभी वसूल नहीं हो पाई। यद्यपि हमारा विश्वास है कि हमारी पुस्तक को हजारों मनुष्यों ने पढ़ा है तथापि अब तक एक भी संस्करण का समाप्त न होना भी इनके प्रति सर्वसाधारण की कदर को जाहिर करता है। अत: ऐसी अवस्था में यह आशा रखना उचित नहीं है कि समय और मस्तिष्क के परिश्रम के अतिरिक्त हम पुस्तकों के छपाने के लिए अपने पास से धन भी खर्च करे। इस विषय में पंजाब की हिन्दू जनता को बंगाल की जनता या मुसलमान महाशयो से कुछ शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए।

उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में मैं यह तुच्छ भेट अपनी जाति की सेवा में समर्पित करता हूँ।


लाहौर-लाजपतराय
6-11-1900