पृष्ठ:योगिराज श्रीकृष्ण.djvu/३२

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भूमिका/31
 


में विभाजित किया है।

आख्यानैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्प सिद्धिभि पुराण संहिताञ्चके पुराणार्थ विशारदः॥

अथर्ववेद वक्ता व्यास ने एक पुराण संहिता लिखी है, जिसमे चार प्रकार के विषय थे अर्थात् 1. आख्यान, 2. उपाख्यान, 3. गाथा और 4. कल्पसिद्धि।

1. आख्यान उसको कहते हैं जिसे वर्णन करने वाले ने निज नेत्रों से देखा हो।

2. उपाख्यान उन घटनाओं को कहते हैं जिन्हें वर्णन करने वाले ने अन्य मनुष्यों से सुनकर लिपिबद्ध किया हो।

3. गाथा उन गीतों का नाम है जो पूर्व जनों के बारे में गाये जाते हों।

4. कल्पसिद्धि उस परिपाटी का नाम है जो श्राद्ध के समय में की जाती है।

उपर्युक्त प्रमाणों के होते हुए निश्चित रूप से यह कहना कि प्राचीन आर्य लोगो को इतिहास मालूम न था और उनके समय में इतिहास-लेखकों का कुछ मान न था, इस प्रकार का कथन है जिसको स्वीकार करने के लिए हम कदापि उद्यत नहीं। हम ऊपर कह आये है कि समय के परिवर्तन से यदि संस्कृत भाषा में किसी शास्त्र-विशेष का लोप हो गया तो उससे यह परिणाम निकालना कि उस भाषा (संस्कृत) में उस शास्त्र का कभी अस्तित्व ही न था, सर्वथैव मिथ्या है। हमारे पास इस तथ्य के लिए बहुत प्रमाण हैं कि प्राचीन साहित्य की बहुत-सी पुस्तको का कुछ पता नहीं। आर्यो की धर्म पुस्तकें (अर्थात् ब्राह्मण, सूत्र और स्मृतियाँ) भी काल के हस्तक्षेप से रक्षित नहीं रही हैं, ऐसी दशा में पुराणों और इतिहासों का लोप हो जाना और इस समय न मिलना आश्चर्यजनक नहीं। अतएव हम यह परिणाम निकाल सकते हैं कि प्राचीन आर्यों के समय में इतिहास और जीवनचरित विद्यमान थे और उनको इतिहास और गाथा कहते थे। अब यह प्रश्न उठता है कि जो पुस्तकें वर्तमान काल में संस्कृत में पुराणों के नाम से प्रसिद्ध है उन्हें ऐतिहासिक गौरव प्राप्त है या नहीं? यदि नहीं तो इसका कारण क्या है?


(आ) पुराणों का ऐतिहासिक गौरव

हम निःशंक यह कहने को उद्यत है कि वर्तमान पुराणों को ऐतिहासिक गौरव प्राप्त नही हे। स्वयं उन्हीं पुराणों में इस बात का प्रमाण मिलता है कि वह प्राचीन साहित्य के पुराण और इतिहास नहीं है वरंच परवर्ती आर्य जाति के समय में रचे गए हैं और उनमें से बहुत से तो उस समय लिखे गए है जब आर्य जाति अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता को खो बैठी थी और अपने धर्म और कर्म को नष्ट कर 'हिन्दू' के कलंकित नाम से पुकारी जाती थी। जब उसको अपने आपको, अपने धर्म को, अपनी मानमर्यादा तथा अपनी स्त्रियों के सतीत्व को संरक्षित रखने के लिए अपने प्राचीन आचार-व्यवहारों को त्याग करना पड़ा जिससे उनका प्राचीन धर्म-कर्म ऐसा दब गया कि उसके चिह्न भी शेष न रहते यदि अंग्रेजी राज्य के आगमन के साथ उस पर प्रकाश की आभा न पड़ती और उसके ऊपर के को उठा देने का उहें (आर्य जाति को)