को निकालना दुर्लभ प्रतीत होता है। प्राचीन आर्य सभ्यता का विद्यार्थी जिसने उपनिषदो की
अद्वितीय विद्या तथा दर्शनों का अध्ययन करके प्राचीन आर्यो की सभ्यता के उत्कर्ष का विचार
किया है, वह जब पौराणिक साहित्य तक पहुँचता है तो यकायक उसके भीतर से ठंडी साँस
निकलती है। यदि उसका आर्यों के नाम से कोई संबंध है या उसके देह में उन्हीं प्राचीन आर्यो
का रक्त है, जिन्होंने रामायण और महाभारत काल में प्रसिद्धि पाई थी तो स्वत: ही उसके नेत्रों
से आँसुओं की धारा बह निकलती है और वह चिल्ला उठता है 'हाय ! हम कहाँ थे और कहाँ
आ गये। वैदिक ऋषियों की सन्तान ! जिन्होंने दर्शनशास्त्रो की रचना की थी, उनकी ही सन्तान
फिर पुराणों और तंत्रों की रचयिता बनी है !!'
कदाचित् आपके मन में यह प्रश्न उपस्थित हो कि श्रीकृष्ण के जीवनचरित का पौराणिक विषय के वादानुवादो से क्या प्रयोजन हैं, तो हमारा उत्तर यह है कि दुर्भाग्यवश श्रीकृष्ण का वह जीवन-वृत्तान्त जो कुछ लोगों को विदित है, अथवा हो सकता है, उस सबका आधार पौराणिक साहित्य ही है। पुराणों ने जातीयता को नष्ट कर मानुषी जीवन को निर्बल बनाने और उसे नीति तथा आध्यात्मिक स्थिति से गिराने में जो काम किया है वह सबसे अधिक उसी महान् पवित्रात्मा से संबंध रखता है, जिनकी संक्षिप्त जीवनी लिखने के हेतु हमने आज लेखनी उठाई है।
श्रीकृष्ण पर पुराणों ने क्या-क्या अत्याचार नही किये है? यहाँ तक कि संसार के एक महापुरुष को अपने क्षुद्र भावो के तीरो से ऐसा बेधित किया कि उसकी सूरत ही बदल गई है। इन्ही पुराणों के कृपाकटाक्ष से अधिकांश आर्य जनों का मन श्रीकृष्ण की ओर से ऐसा फिर गया है और वे उन्हें विषयी और अपवित्र समझने लगे हैं। उसी पौराणिक शिक्षा के कारण बहुत से आर्य शिक्षा पाकर मुसलमान और ईसाइयों के जाल मे जा फँसे। कई बार अच्छे-अच्छे सुशिक्षित पुरुषों के मुख से सुना गया है कि इस धर्मभूमि की समस्त अवनति और आपदाओ के मूल में श्रीकृष्ण ही हैं जिन्होंने अपनी निकृष्ट शिक्षा से महाभारत का युद्ध कराया और देश को अस्तव्यस्त किया। जब हम किसी आर्य सन्तान के मुख से महात्मा कृष्ण के विषय में ऐसे अपमानसूचक शब्द सुनते हैं, हमारा कलेजा मुँह को आ जाता है। परन्तु इन बिचारे नई सभ्यता वालों का क्या अपराध है। पौराणिक गप्पों ने उन्हें इस प्रकार चक्कर में डाल दिया है जिससे उनके लिए अपने जातीय साहित्य से सत्य और असत्य को पृथक् करना असम्भव प्रतीत होता है। हमारे इस कथन का यह तात्पर्य नहीं है कि पुराणों में सत्य का लेश भी नहीं। हमारा तो मत है कि हमारी जाति का इतिहास कदाचित् कुछ पुराणों में भी मिल सके। परन्तु उपमा आदि अलंकार, यार लोगो की मनघड़न्त और हर पीढ़ी के पंडितों के स्वेच्छाचार का इस साहित्य पर इतना अधिकार है कि उसमें से सच्ची घटनाओं का निकालना यदि असम्भव नहीं तो बहुत ही कठिन है।
यों तो लगभग प्रत्येक पुराण में श्रीकृष्ण के जीवन के कुछ-न-कुछ वृत्त अवश्य मिलते है, परन्तु जिनमें यथाक्रम या सविस्तार वर्णन किया गया है, उनके नाम ये हैं--ब्रह्मवैवर्त, भागवत, विष्णुपुराण, ब्रह्मपुराण। इनके अतिरिक्त 'हरिवंश' नामक पुस्तक में भी श्रीकृष्ण के वृत्तान्त बहुत