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42योगिराज श्रीकृष्ण
 


वैराग्य का आश्रय ले लिया, बहुत उचित जान पड़ता है। प्रायः लोग ईसाई धर्म की इसीलिए प्रशंसा करते है कि यदि कोई तेरे एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा भी उसकी ओर फेर दे, किन्तु उनसे पूछो कि इस पर कभी किसी ने अमल भी किया है अथवा स्वयं ईसाई मतावलम्बी भी इसका कहाँ तक आचरण करते हैं? प्रकृति इसके विरुद्ध शिक्षा देती है। ये बातें केवल कहने की हैं, कोई सामर्थ्य वाला पुरुष इस कायरता की क्रिया में नहीं जा सकता। जो लोग कृष्ण की शिक्षा पर अनुचित समालोचना करके उसको महाभारत के युद्ध तथा उससे जो हानि पहुँची है उसका उत्तरदाता ठहराते हैं, वे तनिक विचारें तो सही कि उनके दर्शन का क्या अर्थ है। यदि उनके घर में कोई चोर या डाकू आ घुसे, तो क्या वे इस अवसर पर दया का भाव दिखावेंगे, या कोई विचारशील दयावान उस चोर को अपना माल ले जाने की आज्ञा देगा, अथवा स्वहित का विचार कर उस व्यवहार विरुद्ध कार्य के लिए उसे हानि पहुँचाने में तत्पर हो जाएगा? क्या धर्म की यही आज्ञा थी कि अर्जुन रणक्षेत्र से भाग खड़ा होता और इस प्रकार उन सब कर्तव्यों पर पानी फेर देता, जिन पर आशा करके युधिष्ठिर तथा अन्य महाराज सेना सहित सम्मिलित हुए थे? क्या उस समय कृष्ण का यही कर्तव्य था कि अर्जुन को भागता देख खुद भी उसके साथ भाग जाते? हम नहीं समझते कि जो लोग कृष्ण की इस प्रकार की अयोग्य आलोचना करते है वे धर्म के रक्षक या प्रचारक कैसे कहला सकते हैं। उनका धर्म केवल मौखिक है। उन्हे इस बात की परवाह नहीं कि उनका धर्म मनुष्य समाज के उपयुक्त है या नहीं। उन्हें इसी से मतलब है कि उनका व्याख्यान सुनने वालों को वह रसपूर्ण प्रतीत हो। हमारा तो विश्वास है कि दया तथा वैराग्य के इस झूठे विचार ने ही हिन्दुओं का सर्वनाश कर दिया है और उनकी श्रेष्ठता को मिट्टी में मिला दिया। न उनको इस लोक का छोड़ा न परलोक का। यदि अब भी भारतवासी इन विश्वासों के पंजे से निकलना न चाहें जबकि आधुनिक पाश्चात्य शिक्षा तथा गीता उनको इस बात की शिक्षा देती है, तो ऐसी हालत में उनकी उन्नति का विचार एक भ्रम ही है जिसका पूरा होना कदापि संभव नही। इन बातों पर विश्वास रखने वाले न लौकिक उन्नति कर सकते है न पारलौकिक। कारण कि आध्यात्मिक संसार में भी उसी की पहुँच है जो मनुष्य उस लोक में हर परीक्षा में उत्तीर्ण होकर आध्यात्मिक उन्नति के सोपान पर पैर रखता है। आध्यात्मिक संसार में इन लोगों की पहुँच नहीं हो सकती जो इस संसार के नियमों और परीक्षाओं पर लात मारते है, किन्तु सफलता उन्हें मिलती है जो नियमानुसार अनेक साधनाओं से अपनी आत्मा को इस योग्य बनाते हैं जिससे यह सद्विचार तथा पवित्रता से उस परब्रह्म के चरण-कमलो में स्वयं को समर्पित करते हैं।

इन पृष्ठों में हम एक पवित्रात्मा महान् पुरुष का जीवन-वृत्तान्त लिखते हैं जिसने अपने जीवन-काल में धर्म का पालन किया है और धर्म ही के अनुसार धर्म और न्याय के शत्रुओ का नाश किया है। रहा यह कि क्या कृष्ण ने अद्वैत की शिक्षा दी या द्वैत की (अर्थात् कृष्ण के मतानुसार आत्मा और परमात्मा एक है या भिन्न) यह ऐसा प्रश्न है जिस पर हम इस पुस्तक के दूसरे भाग मे विचार करेंगे।


नवम्बर 900 ई