पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/२३

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योगप्रदीप बाधाओंके सोचमें ही पड़े रहना भूल है । इस प्रकृति और उसकी इन बाधाओंका निस्तार, साधनाका अभावपक्ष है । इन बाधाओंको देखना, समझना और हटाना अवश्य ही एक काम है; पर इसीको सब कुछ समझकर इसीमें सदा डूबे रहना ठीक नहीं । साधनाका जो भावपक्ष है, अर्थात् परा शक्तिके अवतरणका अनुभव, वही मुख्य बात है । यदि कोई यही प्रतीक्षा करता रहे कि पहले निम्न प्रकृति सदाके लिये सर्वथा शुद्ध हो ले और तब परा प्रकृतिके आनेकी बाट जोही जाय तो ऐसी प्रतीक्षासे सदा प्रतीक्षा ही करते रह जाना पड़ेगा । यह सच है कि निम्न प्रकृति जितनी ही शुद्ध होगी, उतना ही परा प्रकृतिका उतर आना आसान होगा: पर यह भी सच है, बल्कि उससे भी अधिक सच है कि परा प्रकृतिका उतरना जितना होगा उतनी ही निम्न प्रकृति निर्मल होगी। पूर्ण शुद्धि या स्थिररूपसे पूर्ण अवतरण एकबारगी ही नहीं हो सकता, यह दीर्घकालमें निरन्तर धैर्यपूर्वक सेवनसे क्रमशः होनेवाला कार्य है । शुद्धि और प्राकट्य दोनोंका काम एक साथ चलता है और दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक स्थिरता और दृढ़ताके साथ दोनों एक दूसरेको आलिङ्गन करते हैं–साधनाका यही सामान्य क्रम है ।

इस प्रकारकी तीव्र अनुभूतियाँ उस समयतक स्थिर [१२]