पृष्ठ:योग प्रदीप.djvu/७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
योगप्रदीप
 

चेतनामें बहुत चेतन है, अवचेतन या अबोध नहीं, पर यह परदेके अन्दर है। हम लोगोंके मनोविज्ञानके हिसाबसे वह हमारी इस क्षुद्र बाह्य व्यष्टिके साथ चेतनाके कुछ चक्रोंके द्वारा सम्बद्ध है। ये चक्र योगके द्वारा जाने जा सकते हैं। उस अन्तःस्थित आत्मसत्ताका अति क्षुद्र अंश इन चक्रोंसे होकर बाह्य जीवन में आता है, पर यही अति क्षुद्र अंश हम लोगोंके जीवनका सर्वोत्तम अंश है और हमारे कलाकौशल, काव्य, तत्त्वज्ञान, आदर्श, धार्मिक उद्योग, ज्ञान और सिद्धिके साधन सब इसीकी बदौलत हैं। परन्तु ये आन्तर चक्र अधिकांशमें बन्द या सुप्त रहते हैं―इन्हें खोलना और जगाना तथा गतिमान् करना, यह योगका एक लक्ष्य है। जब ये चक्र खुलते हैं तब अन्तःस्थित आत्मस ताकी शक्तियाँ और क्षमताएँ हमारे अन्दर जाग उठती हैं; पहला जागरण यह होता है कि हमारा व्यष्टिगत चैतन्य फैल जाता है और फिर हम विश्वचैतन्यको प्राप्त होते हैं; तब हम यह सीमित जीवनवाले क्षुद्र बाह्य पृथक् व्यष्टि नहीं रह जाते, बल्कि विश्व- कर्मके केन्द्र बन जाते और विश्वशक्तियोंसे प्रत्यक्षतया सम्बद्ध रहते हैं। यही नहीं, बल्कि बाह्य व्यष्टिगत पुरुषके समान इन विश्वशक्तियों के हाथकी परवश कठपुतली होनेके बजाय हम एक हदतक प्रकृतिकी इस क्रीडाके ज्ञाता और विधाता बनते हैं―यह सब कहाँतक क्या होता है यह अन्तःपुरुष-

[ ६४ ]