भी जप होता है पर यदि नामजप हो तो यह आवश्यक है कि उसमें चित्त एकाग्र हो और नाम आप ही हृच्चक्रसे उच्चरित होने लगे।
यह प्रश्न किया जा सकता है कि जब इस प्रकार किसी एक ध्येय पदार्थमें चित्त एकाग्र होता है तब चेतनाके शेषभागका क्या होता है? यही होता है कि या तो यह निश्चेष्ट हो जाता है जैसा कि किसी भी प्रकारकी एकाग्रतामें होता है, अथवा यदि ऐसा न हो तो विचार या अन्य भावादि इस तरह आते-जाते हैं जैसे यह आना-जाना बाहर ही होता हो, पर चेतनाका जो एकाग्र भाग है उसका उस ओर कोई ध्यान नहीं होता।
आरम्भ-ही-आरम्भ में दीर्घ कालतक ध्यान लगाकर श्रान्त होनेकी कोई आवश्यकता नहीं है यदि पहले से इसका अभ्यास न हो; क्योंकि थके-माँदे मनसे जो ध्यान किया जाता है वह वास्तविक ध्यान नहीं होता, न उसमें ध्यानकी शक्ति होती है। एकाग्र ध्यान करनेकी अपेक्षा, ऐसी अवस्थामें, तन-मनको ढीला छोड़कर मनन किया जा सकता है। ध्यान जब सहज हो जाय तभी ध्यान करने का समय उत्तरोत्तर बढ़ाना चाहिये।
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