पृष्ठ:रंगभूमि.djvu/१०३

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रंगभूमि

प्रभु सेवक--"अवश्य।"

सोफी-"लेकिन, अगर किसी घर में आग सधी हुई हो, तो उसके निवासियों को गाते-बजाते देखकर तुम उन्हें क्या कहोगे?”

प्रभु सेवक-"मूर्ख कहूँगा, और क्या।"

सोफी-"क्यों, गाना तो कोई बुरी चीज नहीं?"

प्रभु सेवक-"तो यह साफ-साफ क्यों नहीं कहती कि तुमने इन्हें डिग्री दे दी। मैं पहले ही समझ रहा था कि तुम इन्हीं की तरफ झुकोगी।"

सोफी-"अगर यह भय था, तो तुमने सुझे निर्णायक क्यों बनाया था? तुम्हारी कविता उच्च कोटि की है। मैं इसे सर्वाङ्ग-सुन्दर कहने को तैयार हूँ। लेकिन तुम्हारा कर्तव्य है कि अपनी इस अलौकिक शक्ति को स्वदेश-बंधुओं के हित में लगाओ। अवनति की दशा में शृंगार और प्रेम का राग अलापने की जरूरत नहीं होती, इसे तुम भी स्वीकार करोगे। सामान्य कवियों के लिए कोई बंधन नहीं है-उन पर कोई उत्तर- दायित्व नहीं है। लेकिन तुम्हें ईश्वर ने जितनी ही महत्त्व पूर्ण शक्ति प्रदान को है, उतना ही उत्तरदायित्व भी तुम्हारे ऊपर ज्यादा है।"

जब सोफिया चली गई, तो विनय ने प्रभु सेवक से कहा- मैं इस निर्णय को पहले ही से जानता था। तुम लजित तो न हुए होगे?”

प्रभु सेवक-"उसने तुम्हारी मुरौक्त की है।"

'विनयसिंह- "भाई, तुम बड़े अन्यायी हो। इतने युक्ति-पूर्ण निर्णय पर भी उनके सिर इलजाम लगा ही दिया। मैं तो उनकी विचारशीलता का पहले ही से कायल था, आज से भक्त हो गया। इस निर्णय ने मेरे भाग्य का निर्णय कर दिया। प्रभू, मुझे स्वप्न में भी यह आशा न थी कि मैं इतनी आसानी से लालसा का दास हो जाऊँगा। मैं मार्ग से विचलित हो गया, मेरा संयम कपटी मित्र की भाँति परीक्षा के पहले ही अवसर पर मेरा साथ छोड़ गया। मैं भली भाँति जानता हूँ कि मैं आकाश के तारे तोड़ने जा रहा हूँ-वह फल खाने जा रहा हूँ, जो मेरे लिए वर्जित है। खूब जानता हूँ प्रभु, कि मैं अपने जीवन को नैराश्य की वेदी पर बलिदान कर रहा हूँ। अपनी पूज्य माता के हृदय पर कुठाराघात कर रहा हूँ, अपनी मर्यादा की नौका को कलंक के सागर में डुबा रहा हूँ, अपनी महत्वाकांक्षाओं को विसर्जित कर रहा हूँ; पर मेरा अंतःकरण इसके लिए मेरा तिरस्कार नहीं करता। सोफिया मेरी किसी तरह नहीं हो सकती पर मैं उसका हो गया, और आजीवन उसी का रहूँगा।"

प्रभु सेवक-“विनय, अगर सोफी को यह बात मालूम हो गई, तो वह यहाँ एक अण भी न रहेगी; कहीं वह आत्महत्या न कर ले। ईश्वर के लिए यह अनर्थं न करो।"

विनयसिंह-"नहीं प्रभु, मैं बहुत जल्द यहाँ से चला जाऊँगा, और फिर कभी न आऊँगा। मेरा हृदय जलकर भस्म हो जाय; पर सोफी को आँच भी न लगने पावेगी। में दूर देश में बैठा हुआ इस विद्या, विवेक और पवित्रता की देवी की उपासना किया