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रंगभूमि

जगधर-"हाँ, यही मेरा काम है, चोरी-डाका न सिखाऊँ, तो रोटियाँ क्योंकर चलें!"

सुभागी ने फिर व्यंग्य किया-"क्या रात ताड़ी पीने को नहीं मिली क्या?"

जगधर-"ताड़ी के बदले क्या अपना ईमान बेच दूंगा। जब तक समझता था, भला आदमी है, साथ बैठता था, हँसता-बोलता था, ताड़ी भी पी लेता था, कुछ ताड़ी के लालच से नहीं जाता था (क्या कहना है, आप ऐसे ही धर्मात्मा तो हैं!); लेकिन आज से कभी उसके साथ बैठते देखना, तो कान पकड़ लेना। जो आदमी दूसरों के घर में आग लगाये, गरीबों के रुपये चुरा ले जाय, वह अगर मेरा बेटा भी हो तो उसकी सूरत न देखूँ। सूरदास ने न जाने कितने जतन से पाँच सौ रुपये बटोरे थे। वह सब उड़ा ले गया। कहता हूँ, लौटा दे, तो लड़ने पर तैयार होता है।

सूरदास-"फिर वही रट लगाये जाते हो। कह दिया कि मेरे पास रुपये नहीं थे, कहीं और जगह से मार लाया होगा। मेरे पास पाँच सौ रुपये होते, तो चैन की बंसी न बजाता, दूसरों के सामने हाथ क्यों पसारता?”

जगधर-"सूरे, अगर तुम भरी गंगा में कहो कि मेरे रुपये नहीं है, तो मैं न मानूँगा। मैंने अपनी आँखों से वह थेली देखी है। भैरो ने अपने मुँह से कहा है कि यह थैली झोपड़े में धरन के ऊपर मिली। तुम्हारी बात कैसे मान लूँ?"

सुभागी-"तुमने थैली देखी है?"

जगधर-"हाँ, देखी नहीं, तो क्या झूठ बोल रहा हूँ!"

सुभागी-"सूरदास, सच-सच बता दो, रुपये तुम्हारे हैं!"

सूरदास-“पागल हो गई है क्या? इनकी बातों में आ जाती है! भला मेरे पास रुपये कहाँ से आते?"

जगधर-"इनसे पूछ, रुपये न थे, तो इस घड़ी राख बटोरकर क्या ढूँढ रहे थे।"

सुभागी ने सूरदास के चेहरे की तरफ अन्वेषण की दृष्टि से देखा। उसकी बीमार की-सी दशा थी, जो अपने प्रिय जनों की तस्कीन के लिए अपनी असह्य वेदना को छिपाने का असफल प्रयत्न कर रहा हो। जगधर के निकट आकर बोली-"रुपये जरूर थे, इसका चेहरा कहे देता है।"

जगधर-"मैंने थैली अपनी आँखों से देखी है।"

सुभागी-“अब चाहे वह मुझे मारे या निकाले, पर रहँगी उसी के घर। कहाँ-कहां थैली को छिपायेगा? कभी तो मेरे हाथ लगेगी। मेरे ही कारण इस पर यह विपत पड़ी है। मैंने ही उजाड़ा है, मैं ही बसाऊँगी। जब तक इसके रुपये न दिला दूँगी, मुझे चैन न आयेगी।"

यह कहकर वह सूरदास से बोली-"तो अब रहोगे कहाँ?"

सूरदास ने यह बात न सुनी। वह सोच रहा था-"रुपये मैंने ही तो कमाये थे,